मौनहिया का प्रेत : लेखक प्रभाकर पाण्डेय
आज के वैज्ञानिक युग में भूत-प्रेत, चुड़ैल-डायन की बात करने को कुछ लोग प्रासंगिक नहीं मानते। पर क्या, ये लोग सीना ठोंककर या तार्किक रूप से इन आत्माओं के अस्तित्व को खारिज कर सकते हैं? आज का विज्ञान जितनी तेजी से रहस्यों से परदा उठाने की बात करता है, उससे अधिक तेजी से नए-नए रहस्यों में उलझता और उलझाता चला जा रहा है। ये बस उन्हीं रहस्यों को सुलझा पाता है, जिन रहस्यों पर से अपने पुरखों-पुरनियों ने वेद, पुराण आदि के माध्यम से बहुत पहले ही परदा उठा दिया था। मेरा तो बस यह कहना है कि अगर भूत-प्रेत, रहस्यों से, ये दुनिया नहीं भरी-पड़ी है तो विज्ञान इनकी असत्यता को साबित करे न कि बिना तर्क के ही विज्ञान होने का दंभ भरते हुए इनके अस्तित्व को नकार दे। विश्व के तमाम देश यहाँ तक कि विकसित देश भी, वैज्ञानिक दृष्टि से परिपूर्ण देश भी आजक कितने रहस्यों, भूत-प्रेतों से परदा नहीं उठा पाए हैं। आज भी समाचार-पत्रों, टीबी आदि के माध्यम से देश-दुनिया के रहस्यों, भूत-प्रेतों की बात होती रहती है तो मेरा बस यह कहना है कि अगर भूत-प्रेत केवल मन की कल्पना हैं तो रहस्यमयी घटनाएँ क्यों घटिट हो जाती हैं और लोगों के जेहन में भूत-प्रेत के अस्तित्व को पुख्ता कर जाती हैं?
वैसे भी अगर भूत को परिभाषित करने की कोशिश करें तो यह कहा जा सकता है कि जो वर्तमान न होकर अतीत हो, वही भूत है। सजीव या जीवन का तात्पर्य वर्तमान से है यानी जो अभी है, वही जीवन है पर अगर जीवन, सजीव, जीव अतीत होने के बाद भी सूक्ष्म रूप में, आत्मा रूप में भटकता रहे, आवा-गमन से दूर होकर अटका रहे तो वह भूत यानी भूत-प्रेत आदि के रूप में अपने अस्तित्व को बनाए रखता है। धर्मग्रंथों की बात करें तो आत्मा के मुख्य रूप से तीन प्रकार हैं- जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। भौतिक, प्राणवान शरीर ही जीवात्मा है, जैसे हम सब यानी विज्ञान की भाषा में सजीव (Animate), जिसका एक शरीर हो और उसमें प्राण का संचार हो रहा हो। प्रेतात्मा वह है जिसका कोई भौतिक शरीर न हो और जो अब वर्तमान संसार के लिए अतीत हो गया हो और जिसकी आत्मा उसे भौतिक शरीर से निकलकर ब्रह्म में विलिन न होते हुए भटक रही हो। ऐसी आत्माओं में बहुत सारी शक्तियों का संचार हो जाता है क्योंकि भौतिक शरीर छोड़ते ही आत्मा को परमात्मा से प्राप्त शक्तियों का उपभोग करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। जो शक्तियाँ जीवात्मा (मानव) योग, प्राणायाम, पूजा-पाठ आदि से प्राप्त करते हैं, दरअसल ये शक्तियाँ पहले से ही हर जीवात्मा को प्राप्त होती हैं। हम तो मात्र योग, प्राणायाम, पूजा-पाठ के द्वारा इन शक्तियों को जागृत करते हैं पर आत्मा यानी प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा में ये शक्तियाँ अपने आप जागृत हो जाती हैं। हँ जीव के कर्मों के आधार पर कुछ प्रेतात्माओं में ये शक्तियाँ काफी होती हैं तो कुछ में कम तथा साथ ही उनके कर्मों के आधार पर ये शक्तियाँ अच्छी और बुरी होती हैं। साथ ही प्रेतात्मा चूंकि अपने शरीर और कामना, वासना आदि से अधिक दूर नहीं होती और ना ही अपने पिछले शरीर को भूल पाती है, इसलिए इनके कर्म आदि मानव को प्रभावित करते हैं तथा ये अपना आभास भी कराते रहते हैं जबकि सूक्ष्मात्मा परमात्मा के और निकट चली जाती है और जीवात्मा से काफी दूर, इसलिए इनका प्रभाव तो होता है पर इनका आभास जीवों को सजीवों को उतना नहीं होता। इनका आभास केवल मंत्रों, योग आदि के ज्ञाता, साकारात्मकता के धनी आदि को ही हो पाता है। जैसे जीव जन्म लेने के बाद अनेक अवस्थाओं से गुजरता हुआ अंत में मृत्यु को प्राप्त होता है वैसे ही प्रेतात्मा भी प्रेतात्मा की अनेक योनियों (चरणों) से गुजरते हुए सूक्ष्म शरीर से होते हुए परम तत्व को प्राप्त होती है पर हाँ यह भी सत्य है कि कुछ प्रेतात्माएँ अपने कर्मों के कारण बहुत सालों तक प्रेत योनि में ही लटकी रहती हैं।
खैर आइए, फिर कभी आत्मा और परमात्मा या यूं कहें जीव, जीवन, प्रेतात्मा बनने आदि के बारे में विस्तार से चर्चा की जाएगी। अभी तो हम आपको रहस्यमयी कहानी, भूतही कहानी, अलौकिक कहानी की ओर अग्रसर करना चाहता हूँ।
मौनहिया, जी हाँ एक गढ़ही (तालाब) का नाम है जिसे हमारे गाँव-जवार के लोग पता नहीं कब से मौनहिया गढ़ही कहते आ रहे हैं। जब से मैंने होस संभाला है इस गढ़ही (तालाब) से जुड़े खिस्से सुनते आ रहा हूँ। वैसे इस गढ़ही का नाम मौनहिया क्यों पड़ा?, इसके पीछे कुछ घटनाएँ (काल्पनिक) बताई जाती हैं। बहुत पहले या यूं कहें बाप-दादों के समय में यह गढ़ई बहुत विशाल हुआ करती थी और बरसात के दिनों में लबालब भर जाती थी और इसके किनारों आदि पर इतने घाँस-फूँस उग आते थे कि इसका रूप पूरी तरह से भयावह हो जाता था। अगर किसी की भैंस आदि इसमें घुस जाती थीं तो वह चरवाहा किनारे पर काफी दूर रहकर ही अपने भैंस के निकलने का इंतजार करता और भूलकर भी इसमें प्रवेश नहीं करता। कहा जाता है कि इसके सपाट किनारों पर दूर गाँव से आए भेड़िहार अपनी भेंड़ों के साथ कई-कई दिन तक टिकते थे। एक बार की बात है कि भेड़वाहों का एक समूह इस गढ़ही के किनारे टिका हुआ था। रात को उन लोगों ने लिट्टी आदि लगा कर खाया और अपने डेरे में सो गए, जब सुबह वे लोग जगे तो उनके मेठ (मालिक) की आवाज ही चली गई थी और वह चाहकर भी उस दिन से बोल नहीं पाया। पर हाँ इशारों-इशारों में ही उसने बताया कि रात को लिट्टी के साथ गोस्त बनाने पर उस गढ़ही के बाबा यानी प्रेत, उस पर भड़क उठे थे और रात को उसे घिसरा-घिसराकर मारे थे, वह चिल्लाने की कोशिश कर रहा था पर अचानक उसकी आवाज ही जाती रही। उसके बाद तो यह बात आग की तरह पूरे जवार में फैल गई और उसके बाद कोई भी व्यक्ति उस गढ़ही के किनारे या आस-पास कभी भी गोस्त (मांस) बनाकर खाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि शायद उस रात वे भेड़िहार लिट्टी-गोस्त बनाने के बाद मौनहिया बाबा को चढ़ाए नहीं होंगे, इसलिए बाबा भड़क उठे होंगे। खैर जो भी बात हो, पर इस घटना के बाद काफी दिनों तक इस गढ़ही की ओर जाने वाले किसान, मजदूर, चरवाहे, घँसिकट्टा मौन ही रहना पसंद करते थे और मन ही मन यहाँ के बाबा को प्रणाम कर लेते थे। शायद इन्हीं सब कारणों से इस गढ़ही का नाम मौनहिया पड़ गया।
मौनहिया बाबा को लंठाधिराज की उपाधि प्राप्त है क्योंकि ये बाबा, लोगों को विनोद करने के लिए, मजा लेने के लिए परेशान करते हैं न कि अहित करने के लिए। आज तक 1-2 घटनाओं को छोड़ दे तो बाबा ने लोगों को उतना नहीं सताया है जितना और भूत-प्रेत सताते हैं। अगर बाबा सताते हैं तो सहायता भी करते हैं। इनका रूप आज तक लोगों के समझ से परे है। आइए, बाबा के कुछ कारनामों को नमन कर लेते हैं-
एक बार की बात है कि हमारे गाँव के एक पंडीजी पास के ही किसी गाँव से इसी गढ़ही से होकर आ रहे थे। शाम का समय था पर सूर्यदेव अभी पश्चिम में अपनी आभा बिखेर रहे थे। चरवाहे भी अब गाय-भैंसों को लेकर गाँव की ओर चलने की तैयारी करने लगे थे। अचानक पंडीजी जब उस गढ़ही पर पहुँचे तो वहीं एक चरवाहे के पास रुक गए। फिर अपनी चुनौती निकालकर सुर्ती बनाए, खुद खाए और उस चरवाहे को खिलाए पर सुर्ती खाते ही अन्य चरवाहों ने क्या देखा कि पंडीजी आगे-आगे और वह चरवाहा लाठी लिए उनके पीछे-पीछे उस गढ़ही के चक्कर लगाने लगे। अन्य चरवाहों को लगा कि हो सकता है कि ये दोनों जन कुछ बात करते हुए, टहलने की दृष्टि से ऐसा कर रहे हों, इसलिए इस घटना पर विशेष ध्यान न देते हुए अन्य चरवाहे सबकी गाय-भैंसों को हाँकते हुए गाँव में आ गए। जब रात के लगभग 8 बज गए और पंडीजी और वह चरवाहा घर वापस नहीं आए तो उनके घरवालों को कोई अनहोनी सताने लगी। खैर, घरवालों को तो चरवाहों ने बता ही दिया था कि पंडीजी और वह चरवाहा गढ़ही का चक्कर लगा रहे थे। अब क्या था, गाँव के कुछ बड़-बुजुर्ग के साथ पंडीजी और उस चरवाहे के घर के कुछ लोग लालटेन, बैटरी, लाठी आदि के साथ मौनहिया गढ़ही पर गए। अरे यह क्या, गढ़ही पर जाकर वे लोग देखते हैं कि पंडीजी और वह चरवाहा बिना कुछ बोले, आगे-पीछे होकर उस गढ़ही की परिक्रमा कर रहे हैं। एक बुजुर्ग को सारी बातें समझ में आ गईं। उन्होंने फौरन चुनौती निकाली, सुर्ती बनाकर वहाँ मौनहिया बाबा को चढ़ाया और उसके बाद वे लोग पंडीजी और उस चरवाहे को लेकर गाँव आ गए। गाँव आकर पंडीजी ने बताया कि सुर्ती बनाकर खाने के बाद पता नहीं उन्हें क्या हुआ कि वे चाहकर भी घर की ओर न आ पाए और उन्हें लगने लगा की वे गाँव की ओर ही जा रहे हैं। गाँव के एक व्यक्ति ने कहा कि सुर्ती बनाकर आपको पहले मौनहिया बाबा को चढ़ाना चाहिए था। उन्होंने आपका दिमाग घुमा दिया और आपको भुलौना लग गया।
आइए, इस मौनहिया बाबा की एक घटना और सुन लेते हैं-
एक बार की बात है कि हमारे गाँव के ही दो लोग साइकिल से मौनहिया गढ़ही से होकर एक गाँव में नेवता (शादी-विवाह में शामिल होने) में जा रहे थे। मौनहिया गढ़ही के बगल से एक सेक्टर से निकलते हुए साइकिल पर पीछे कैरियर पर बैठा व्यक्ति सुर्ती बनाया और साइकिल चलाने वाले को देने के बाद खुद भी खाया। अरे यह क्या, अचानक साइकिल का संतुलन बिगड़ा और देखते ही देखते साइकिल हवा में लहराते हुए उस सेक्टर से काफी दूर एक खेत में चली गई। अच्छा हुआ कि वह खेत हाल का ही पटाया हुआ था और अभी भी उसमें लबालभ पानी भरा हुआ था, जिससे इन दोनों लोगों को कम चोटें आईं। साइकिल पर गिरने के बाद साइकिल चालक ने उठते हुए पहले यही कहा कि आपने सुर्ती बनाई तो मौनहिया बाबा को क्यों नहीं चढ़ाई? जल्दी सुर्ती बनाकर मौनहिया बाबा को चढ़ाइए, अच्छा हुआ कि कुछ टूटा-फूटा नहीं। फिर क्या था, सुर्ती बनाकर चढ़ाने के बाद कानो-माटी से लथपथ वे दोनों लोग अपने घर वापस आ गए और फिर नहा-धोकर दूसरे रास्ते से नेवता में गए।
मौनहिया का प्रेत : लेखक प्रभाकर पाण्डेय
Reviewed by कहानीकार
on
September 05, 2017
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