बदला : लेखक नारायण गौरव
ट्रिगर दबा, गोली अपने खोल से बाहर निकली, हवा को चीरती अपनी मंजिल की ओर बढ़ चली। दुनिया में सबसे अधिक तेजी से कोई अपनी मंजिल पा जाता है तो वह गोली होती है। सो गोली पलक झपकते ही अपनी मंजिल तक पहुँच गई। मंजिल हासिल करने के लिए उसने सबसे पहले हड्डी पर चढ़े माँस को बेरहमी से चीरा, माँसपेशियों को छिन्न-भिन्न किया और अंत में हड्डी में सुराख करते हुए घुटने के दूसरी तरफ से बाहर आकर अंतिम गति को प्राप्त हो गई।
“आह”
एक जोरदार चीख के साथ गोली का शिकार हुए उस शख्स ने अपना घुटना अपने हाथों से पकड़ लिया जो अब लहू से सना था। गोली खाकर वह शख्स अब धरती पर पड़ा था। दर्द, पसीना, आँसू, भय उसके चेहरे पर अपनी सत्ता पूरी तरह कायम करने के लिए आपस में संघर्षरत थे। उसकी दर्द में डूबी निगाहें उस रिवाल्वर पर टिकीं थी जो उसके खून का सुट्टा लगाकर उस काली सुनसान रात में मुँह से सफेद धुआँ उगल रही थी। रिवाल्वर के निशाने पर अपनी खोपडी को पाकर उसने अपने दोनों हाथ किसी तरह अपने लहुलुहान घुटने से हटाए और उन्हें उन हाथों के आगे जोड़ दिया जिन हाथों ने आग उगलती उस रिवाल्वर को मजबूती से थामा हुआ था। घायल शख्स के जुड़े हाथों का रिवाल्वर थामे हुए हाथों पर कुछ प्रभाव पड़ा। बाएँ हाथ ने रिवाल्वर थामे हुए दाएँ हाथ का साथ छोड़ा और चेहरे पर पड़े हिजाब को हटा दिया।
घायल शख्स ने हिजाब के हटने से अपनी आँखों में उभरे अक्स को पहचाना तो उसकी भय और दर्द में डूबी आँखें अपने वास्तविक आकार से चौगुनी हो गईं। उसके जुड़े हुए हाथ उसके घुटनों पर वापस आ गए। उसका सिर फिर से उस धरती पर झुक गया जो धरती उसके लहू और पसीने से भीग चुकी थी। उस भीग चुकी धरती में उसे अपने अतीत का अक्स दिखाई देने लगा। अतीत के अक्स में वह सुंदरी दिखाई दी जो इस समय हाथ में रिवाल्वर लिए मौत बनकर उसके सामने खड़ी थी। वह हसीना दिखाई दी जो कभी उसकी जिंदगी हुआ करती थी। जिसको अपना बनाने के लिए कभी उसने दिन-रात एक कर दिए थे। जिसकी चाहत में सारे जज्बात नेक कर दिए थे। कॉलेज का वह पहला दिन जब पहली बार में ही वह उसका दीवाना हो गया था। एकतरफा प्यार का छलकता पैमाना हो गया था। कर दूँगा खाक उसकी मोहब्बत में खुद को यह सोचनेवाला परवाना हो गया था। वह उसकी जिंदगी, उसका वजूद हो चली थी। दिल को प्यार का अपराधी घोषित करने का सबूत हो चली थी। दिन ब दिन उसकी दीवानगी, उसका जुनून हो चली थी। मोहब्बत थी अगर कसूर तो वह कसूर हो चली थी। सोते-जागते, उठते-बैठते दिखनेवाले ख्वाबों में काबिज हुजूर हो चली थी।
मगर एक दिन ख्वाब टूटा यह देखकर कि वह किसी और की बातों में थी। उसकी साँसें किसी और की साँसों में थीं। वह उसकी नहीं किसी और की बाँहों में थी। बस उसका किसी और का होना वह बर्दाश्त न कर पाया। खुद परवाना होकर खाक हो जाने का हिसाब न कर पाया। बुझा दूँ शमा को ही परवाने की मोहब्बत में बस इतना ही इजहार ए जज्बात कर पाया। और एक दिन ऐसी ही काली रात में तेजाब की एक बोतल हाथ में लेकर शमा के चेहरे पर उडेल कर अपनी नाकाम, सनकी मोहब्बत को राख कर आया।
उसकी जुनूनी मोहब्बत में झुलसा अपना चेहरा लिए वह अस्पताल, थानों, कचहरी के चक्कर काटती रही। मौत से भी बद्तर अपनी जिंदगी का मुँह ताकती रही। अपने औरत होने की औकात आँकती रही। समय के क्रूर आइने में अपना गुम चुका अक्स तलाशती रही। पर कुछ न मिला, सिवाय दर्द, दर्द और दर्द के। जबकि परवाना कानूनी कमजोरियों का फायदा उठाकर बच निकला। उसका बच निकल जाना उस दर्द से कहीं ज्यादा था जिस दर्द को वह अपने चेहरे पर ही नही, अपने दिल, दिमाग और हर तरह से झुलस चुकी अपनी शख्सियत पर महसूस करती आई थी। दर्द इतना दर्द नहीं देता जितना दर्द का लाइलाज होना दे देता है। इस दर्द में अब वह तड़प नहीं बल्कि छटपटा रही थी। अपने मरते जा रहे जज्बातों का बंद हुआ दरवाजा खटखटा रही थी। और रोज की इस खटखट से आजिज आकर एक दिन जज्बातों का दरवाजा खुला और उसमें से जिसने बाहर झाँका वह था “बदला”। बदला, प्रतिशोध, इंतकाम, रिवेंज। उसके बाहर आते ही उसके दर्द से तड़पते दिल को बेहद सुकून मिला। वह उम्मीदों से वापस जी उठी। जो इलाज हर वह शख्स, वह संस्था, वह कानून न दे पाया जिसे देना उसकी पहली जिम्मेवारी थी, वह उसके लगभग मर चुके जज्बातों ने उसे दे दिया था। उसी का परिणाम था कि वह शख्स खून से सना अपना घुटना थामे उस सुनसान रात में बेबस-लाचार, सिर झुकाए उसके सामने पड़ा था। उसके रिवाल्वर से निकली एक गोली ने उसके घुटने को ही नहीं चीरा था बल्कि उसके पुरुष होकर कुछ भी कर जाने के अहंकार के परखच्चे उड़ा दिए थे। अब वह उसके रहमोकरम पर था। वह जानता था कि रिवाल्वर से निकली दूसरी गोली उसे वह दूसरा मौका भी नहीं देगी कि अब तक उसने जो किया उसका अफसोस भी कर सके। उसका रोंया-रोंया दर्द और भय से काँप रहा था। उसकी जुबान को लकवा मार गया था। जबकि वहीं दूसरी तरफ वे हाथ जिन्होंने उस रिवाल्वर को अब तक मजबूती से थामा हुआ था वे हाथ उस शख्स की लाचारी को देखकर कुझ ढीले पड़ने लगे थे। प्रतिशोध निरर्थक लगने लगा था। हाथ से निकली चीजें जब हाथ में वापस आ जाएँ तो व्यक्ति अपने मूल स्वभाव में वापस आ जाता है। यही उसके साथ भी हुआ। अपने सामने सिर झुकाए उस शख्स को यूँ मर्मांतक अवस्था में देखकर वह शांत हो गई। उसको जान से मार देना उसे छोटा लगने लगा। उसने रिवाल्वर को थामे हुए हाथ नीचे किए। वापस मुड़ी और उस काली सुनसान रात और उस घायल शख्स को उस सडक पर यूँ ही पड़ा छोड़ वापस चल दी। वह अपना घुटना थामे आश्चर्य से फटी अपनी उन आँखों से उसे वापस जाते देखता रहा जिन आँखों के कोनों से आँसुओं का एक झरना खुद ब खुद खून से भीगी उस सड़क को धोने में जुट गया था।
बदला : लेखक नारायण गौरव
Reviewed by कहानीकार
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September 05, 2017
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