आँख वाली सड़कें : लेखक आशुतोष कुमार
बाथरूम से निकलकर मैं बालकनी में आई. अपने गीले बालों से लिपटे तौलिए को झटका तो खिड़की पर बैठे कबूतर फड़फड़ा कर उड़ गए. मैं घबरा गयी. ये इसी तरह चौंकाते रहते हैं. ये मुझे चौकाते हैं, मैं इनको. हमेशा कोसती थी इनको, पर आज नहीं. इनको अब मुझसे घबराने की जरूरत नहीं. अब मैं इनको भगाने के लिए खिड़कियाँ नहीं पीटूँगी. नादान हैं बेचारे!. इनको पता ही नहीं कि मेरी इनसे शिकायतें अब खत्म हो गयी हैं. आज से, दो घंटें पहले जो कुछ भी हुआ. जो कुछ भी मैंने विद्या बनकर अनुभव किया. विद्या मेरे अस्पताल की एक मरीज है जो कल ही डिस्चार्ज हुई है. आज मैं घंटे भर से बाथरूम में थी. दसियों बार अपने पैरों पर साबुन मला. स्क्रबर से खुरचा. धोया. कांपती रही, पर नहाती गयी. सुबह की गन्दगी मानो पैरों के चमड़ों से घुस कर शरीर के अंदर पहुँच गयी हो. पर अब ठण्डा पानी असर दिखा रहा है. पूरा शरीर कांप रहा है. ब्लोवर आन कर लिया. फिर भी ठंढ़ से राहत नहीं मिली. जब लगा कि अब जुकाम हो जायेगा तब अंदर जाकर मैंने शाल निकाली. शाल, स्वेटर के कई परतों से अपने आप को ढँक लिया. चाय बनायी. सोचा थोड़ी गर्मी मिलेगी. कंपकपाते हथेलियों से कप को चारो तरफ से ढँक लिया. चाय की भाप मेरे मुंह के भाप से हिल डुल कर गुम हो जा रही थी. कप को चेहरे के और पास ले गयी. मेरे चेहरों को अब एक गुनगुना सुकून मिलने लगा. कपड़ों और चाय ने अपना कमाल दिखाया तो मेरे शरीर के साथ मेरी चेतना को भी शक्ति मिली.आज तड़के जिस डरावने अनुभव का सामना करना पड़ा वह अभी भी मेरे जेहन से निकल नहीं पाई है. वो जगह इसी शहर का हिस्सा है और जिस अनुभव से आज मेरा सामना हुआ वह न जाने कितनी ही औरतोंकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है. आज आगरा शहर के विस्तार से मेरा अलग परिचय हुआ. वर्ना पिछले २ सालों से मेरी जिंदगी हास्पिटल से हास्टल - हास्टल से हास्पिटल तक ही सीमित रही थी. अस्पताल कैम्पस ही मेरी दुनिया थी. कभी-कभी शाम को कलीग्स के साथ कोई गपशप हो जाती है, फिर वो अपने कमरे में, मैं अपने कमरे में. अकेले अपने एक जोड़ी नन्हे दुश्मनों के साथ जिनके बीट्स की सफाई करते करते मैं डाक्टर कम बाई ज्यादा महसूस करने लगती. कबूतरों को वहाँ से भगाने की बीसियों बार कोशिस की, पर कभी कामयाब नहीं हो पायी. शाम को जब अस्पताल से वापस लौटती तो उनकी मौजूदगी के निशान पीछे की बालकनी की फर्श पर टपके मिलते. मैंने उस बालकनी में लगभग जाना ही बंद कर दिया. पर हफ्ते दस दिन में जब तमाम चीटियाँ घर में रेंगने लगती , तब किसी वार्ड ब्वाय को बुलवाकर फर्श की सफाई करवा देती. कल जब विद्या को डिस्चार्ज होने के बाद हास्टल में लायी तो कमोबेश वही हाल थे. अस्पताल से विद्या के घर की दूरी महज 5 किलोमीटर थी. मेरे कार से बमुश्किल 20 मिनट का रास्ता. विद्या के अंतर्मन को समझने के लिए ये समय कम था. लिहाजा मैंने उसके काउंसलिंग के लिए उसको अपने हॉस्टल ले जाने का निर्णय किया था. वहीं एकांत मिलेगा, उसको सुनने के लिए, उसको समझने के लिए. उसके घर वालों को सूचित किया . किसी ने मना नहीं किया. सबको पता था कि विद्या के इलाज में मैंने किस हद तक उनकी मदद की थी. इलाज़ के दौरान विद्या की गंभीरता और उसके दार्शनिक से विचारों ने मुझमें उसे और जानने की कौतूहल पैदा कर दी थी. एक पढ़ी-लिखी लड़की ने इतनी नादानी भरा कदम क्यों उठाया? . ये मुझे जानना था. पर इस अनजान जगह आकर बेचारी बहुत सकुचा रही थी. मैंने कमरे का दरवाजा बंद किया. फ्रिज से जूस के दो पैकेट निकाले. फिर इधर उधर की बातें की , उसके मायके की, कॉलेज की, सहेलियों की . वह ज्यादातर हाँ-हूँ ही करती रही. पर कुछ देर बाद जब थोड़ा संयत हुई तो मैं सीधे मुद्दे पर आ गयी.
“तुझे पता है, आत्महत्या करना अपराध होता है, जेल की सजा हो सकती है”
“जेल !! अपनी जिंदगी तो जेल से भी बदतर हो गयी है मैडम, जेल तो इससे अच्छा ही होता होगा, कम से कम वहाँ तो....” उसकी खीझ पहले शब्दों से निकले फिर आंसू बन कर गाल पर लुढकने लगे.
मैंने थोड़ा हौंसला दिया, उसके पीठ को सहलाया. वह थोड़ी देर चुप रहती, फिर एकटक शून्य में देखने लगती. रह रह कर उसकी आँखें भर आती.मैं उसके अंतर्मन में झांकने की लगातार कोशिश करती रही . घंटे भर बाद वह पुनः सहज हो पाई. अपनी कहानी मुझे बताने लगी. मैं जैसे जैसे उसकी बातें सुन रही थी, मैं खुद शून्य में गुम हुए जा रही थी. मेरी आँखों के सामने चलचित्र सा चलने लगा.
६ महीने पहले विद्या की शादी हुई थी. कुल चार लोग ही रहते है उसके घर में. वो,उसका पति और उसके सास- ससुर. यूँ तो एक जेठ भी है, पर वो अपने परिवार के साथ दिल्ली के संगम विहार में रहता है. साल भर में एकाध बार ही आता है. पिछली बार वो उसकी शादी में आये थे फिर तीसरे ही बीबी बच्चों समेत दिन निकल गए. यहाँ करीब 70-80 गज का मकान है एक मंजिल का. दो कमरे हैं . एक में विद्या और उसके पति सोतेहैं तो दूसरे में सास ससुर या फिर कोई रिश्तेदार आ गया तो वो. घर के सामने थोड़ी सी जगह है जिसमें दिन में उसके ससुर खटिया डाल कर धूप सेंकते रहते हैं. घर के पीछे एक आंगन है, जहाँ बीचो-बीच एक 6 फीट ऊंची दीवार है, उसके ऊपर सीमेंट शेड पड़ा हुआ है. यहाँ खाना बनता है. बाकि के आधे खुले हिस्से में घर की औरतों के नहाने, कपड़े धोने, बर्तन मांजने की जगह. कुल मिलाकर उसे बाथरूम कहा जा सकता है. हैण्डपम्प वहीँ ही लगा है. उसके ससुर और पति बाहर नहाते हैं. घर के सामने एक गली है जिसके दोनों किनारों पर नालियां बनी हैं. घर का सारा गन्दा पानी वहीँ बह के जाता है. एक लकड़ी की सीढ़ी है जिससे घर की छत पर चढ़ा जाता है; गेंहू चावल सुखाने के लिए. पिछले कुछ दिनों से बस यही उसकी दुनिया है. शौच के लिए सब बाहर ही जाते है. विद्या जब ब्याह के इस घर में आई तो बस यही एक कमी खली. कुछ दिन बाद ही उसने अपने इस कष्ट के बारे में अपनी सास को बताई. सास नें उसके ससुर को.
ससुर ने नयी बहुरिया कि डिमांड सुनी तो भड़क गए “ अरे दो दिन में ही पर निकल आये महारानी को ”
“कौन सा गलत बात कह रही है, आज कि जरूरत है ये”
“तू बड़ा इसका साइड ले रही है”
“क्यूँ न लूं, इस के माँ बाप ने यहाँ इसे हमारे सहारे ही तो ब्याहा है”.
“ तो पहले कौन सा ये टाटा बिरला के घर थी. वहाँ कौन सा पैखाना था”
बाहर ये बहस चल रही थी अंदर से विद्या सब सुन रही थी. मायके की बात सुनकर तुनक गयी.
“ बाबूजी पर वो गांव है, वहाँ अब भी मर्दों में लाज शर्म बाकी है. कोई भी मर्द औरतों की तरफ के खेत की ओर नहीं जाता”
“ तो यहाँ कौन तेरी ओर जाता है, सारी लाज शर्म वाले तेरे ही गांव में हैं क्या?” कहते कहते सांस फूल गया. अब ये दिन भी देखना था. महीने भर भी नहीं हुए छोरी को इस घर में आये. जब से आई है नाक में दम कर दिया है ससुरी ने. और तो और उसकी अपनी घर वाली भी नयी नवेली बहुरिया की ही साइड लेती है.
सोच कर ससुर मन ही मन कुढ़ गए. साइड क्यूँ न ले!, जब देखो तब इससे अपना देह जो मिजवाती रहती है. पचास के उम्र में भी जवान दिखती है, और यहाँ तो कफ़ और कब्ज ने घेर कर बूढ़ा बना दिया है.
“अरे खड़ी क्या है, जा पानी ला एक गिलास ”
सास पानी लेने अंदर घुसी तो विद्या भी साथ हो ली. कौन सुने इनकी बक बक.
सास ने पानी लाकर दिया.
“तुझपे इसने क्या जादू कर दिया है जो इसको समझाने के बजाय इसकी वकालत करते फिरती है?”
“ वकालत की बात नहीं है जी, मोहल्ले में किसके पास था पैखाना, पर एक एक करके सबने बनवा लिया”
“ तो क्या सबकी तरह मैं भी भ्रष्ट हो जाऊं, मैं भी रसोई के बगल में पैखाना बनवालूँ , मत मारी गयी है क्या तेरी, मेरे जीते जी ये दिन कभी न आयेगा, एक निवाला नहीं निगलूँगा मैं”
“सच बताओ यही बात है क्या, रसोई से तकलीफ है तो रसोई छत पे लगा देंगे”
“ तो सब पहले से ही सोच लिया है तुमने, फिर गला क्यों नहीं घोट देती मेरा” वह पहले तो चीखे फिर थोड़ा शांत होकर बोले “छोटा बता रहा था कि कम से कम बीस हजार का खर्चा आएगा, कहाँ से आएगा. छोटा सा तो मकान है अपनाइस जगह में पैखाना कहाँ बनायेगी. कुछ समझ है कि कितनी तोड़ फोड़ होगी, उसका खर्चा अलग. बता, तू क्या क्या तुड़वाएगी !.”
“बहू कह रही थी कि ये बेच ..देते..फिर..”
“हरामजादी, बड़ी अकल आ गई है उस रामदास की छोरी में. बी ए किया है तो क्या सिर पर मूतेगी. साला अपना लौंडा ही चूतिया निकल गया है. बीवी को सिर पर चढ़ा लिया है. वो पुस्तैनी घर बिकवाएगी. अरे घर से बाहर नहीं निकलेगी, चार कदम चलेगी फिरेगी नहीं तो शरीर कैसे मजबूत होगा, बच्चा जनने की ताकत कहाँ से मिलेगी. फिर, पेट काट कर बच्चा निकलवाना आज की मेमों कि तरह. ये मंजूर होगा. मगर चार कदम चलना नहीं. घर में ही गंध मचायेंगी”
“बात पास दूर की नहीं है जी, आजकल लड़कियां शर्माती हैं खुले में”
“अरे शर्म तो तब होवे जब कोई देखे, कौन कहता है भरी दोपहरी में जाने को”.
“रात में भी बहुत चहल पहल रहती है अब सड़कों पर..”
“अरे लोग राही हैं, तो क्या तुम्हारे कारण रस्ते से चलना छोड़ दे!, आज से ये रास्ता बना है क्या?” ससुर जी के पास जवाब कम सवाल ज्यादा ही होते हैं.
“तब की बात और थी, पर अब जमाना बदल गया है..”
“ख़ाक बदल गया है,अरे हम भी तो जाते हैं, मजाल है कि कभी निगाह गयी हो किसी बैठी हुई औरत पर!”
“आपकी बात और है, पर आजकल के लड़के! , कोई शरम नहीं है इनकी आँखों में”
“तुझे कैसे पता, कभी तुझे किसी लड़के ने घूरा क्या ?” ससुर जी अब कुतर्क पर उतारू हो गए.
अंदर कमरे में लेटे लेटे विद्या ये वार्तालाप सुन रही थी. जब से उसने टायलेट वाली बात छेड़ी है तब से ऐसी झिकझिक अब आम बात हो चुकी है. सास थोड़ा धीरे धीरे बोलती हैं कि कोई पड़ोसी सुन न ले. मगर ससुर तो कलेजा फाड़ फाड़ कर चिल्लाते हैं. पूरा मोहल्ला सुनता होगा. क्या पता सुनाने के लिए ही चिल्लाते हों. टायलेट बनवाने के खिलाफ हैं. इस खंडहर से घर का तो क्या मोह होगा, असल बात खर्चे की है. घर बना ही ऐसे है की बिना तोड़ फोड़ किये कुछ नया बनाना मुश्किल है. इसको बेचने के भी बहुत खिलाफ हैं. बुजुर्गों की इस घर को छोड़ कर कहीं जाने की इच्छा नहीं है उनकी.
सास की सोच ससुर से अलग है पर वह भी ये जगह छोड़ना नहीं चाहती. ये पुस्तैनी घर है. बच्चे भी यहीं पले बढ़े हैं. सब की शादियां यहीं से की. यहाँ सब है. पास पड़ोस एक दूसरे के सुख दुःख में काम आते हैं. दस साल पहले जब बड़े बेटे की शादी की थी तब कुछ नहीं था यहाँ. फिर सरकार ने सारी जमीन अपने कब्ज़े में ले लिया. बोले सड़क जायेगी. किनारे कालोनियां बनेंगी. सब खुश हुए. सबके जमीनों के दाम बढ़ेंगे. कोई दूकान डाल लेगा तो रोज 100-50 का मुनाफा कहीं गया नहीं. सड़क उसके घर से बहुत दूर नहीं. बस कुल 200 कदम दूर होगी. घर से निकलते ही, बायीं तरफ वाली गली से सीधे सड़क पर पहुँच जाओ. कितनी हैरानी होती है सोचकर कि बस कुछ साल पहले तक यहाँ खेतों और दो चार दुकानों के सिवा कुछ भी नहीं था. पर अब तो ये जगह पहचान में ही नहीं आता. पहले पक्की सड़क बनी. सड़क फिर चौड़ी हुई. फिर और चौड़ी हुई!. फिर कुछ साल बाद बीच में एक डिवाइडर बन गया . पिछले साल ही चौराहे के ऊपर गाड़ियों के आने जाने के लिएएक पुल बन गया. कुछ नयी दुकानें खुलीं. फिर सड़क के बीचोबीच लाइटें लग गयी. दुकानें देर रात तक खुली रहने लगीं. सब रोशनी से चकाचौध. अगर बिजली चली भी जाये तो जेनेरेटर चलने लगते हैं. पहले औरतें दिन डूबने के समय ही निवृत्त होने इधर आतीं थीं. अबतो मानो दिन रात का अंतर ही मिट गया है. हर वक्त गाड़ियों का आना जाना लगा रहता है. चौबीसों घंटे!. साल दर साल उनके शौच की जगह खाली और आड़ वाली जगहों की तलाश में पीछे खिसकते चली गयी. आजकल ढेर सारी नयी कालोनियों के बन जाने से एक नयी समस्या आ गयी है. ये कालोनी वाले सब सुबह-सुबह सड़कों पर दौड़ते- टहलते रहते हैं. इनको हम लोगों से बहुत शिकायतें रहती हैं. पुलिस से भी शिकायत करते हैं. पर कोई कितना दूर जाये, लौटकर बच्चों को भी तो देखना होता है, खाना पकाना होता है. जाने कितने काम होते हैं. फिर, रात में सड़कों पर छीना झपटी, दबोचयी. बूढ़ी औरतें तो चलो दूर चली भी जायें, पर जवान औरतों की तो समझो खैर नहीं. जाने कब से ये अँधेरा औरतों का दुश्मन बना हुआ है.
विद्या की बातें सुनकर मुझे लगा कि कहीं ये उसके अकेले की वेदना तो नहीं “तुम्हारी जेठानी को कोई तकलीफ नहीं होती ?” मैंने प्रश्न किया.
“मेरी जेठानी तो कभी आती ही नहीं यहाँ पर, दिल्ली में रहती है. बताती है कि सरकार ने खुद उसकी बस्ती में शौचालय बनवाए हैं. कम से कम दस होंगे उसी जगह. किसी का अपना नहीं है. शुबह सब लाइन में लग जाते हैं. कोई झगड़ा झंझट नहीं. यहाँ तो मैडमजी कभी दिन में पेट दर्द हुआ तो मेरी जान निकल ही निकल जाती. किसी तरह बर्दास्त करने की कोशिश करती. भला भरी दोपहरी में कोई कहाँ जाये”
“फिर ?”
“ फिर क्या मैडम, क्या-क्या जतन नहीं किये मैंने इस मुसीबत से बचने के लिए. पेशाब बार बार न आये, इस डर से मैंने पानी पीना बहुत कम कर दिया. खाना खाते समय भी बस दो घूँट पानी पीती थी. खाना भी बस उतना ही खाती कि बस खड़ी रह सकूँ. डरती जो थी. पेट में जोर लगी तो कहाँ जाउंगी.अपच के डर से खाना भी कम खाने लगी थी. शादी से पहले मैं सोमवार का व्रत रखती थी. मैंने उसे तो फिर से शुरू ही किया साथ ही शुक्रवार को भी व्रत रहने लगी. कोई मनौती वनौती नहीं. बस इसलिए कि पेट खाली होगा तो लैट्रिन लगेगीही नहीं. थोड़ी गैस की समस्या होती थी पर वो इतनी गंभीर नहीं लगती थी ”.
“कब तक चले ये तेरे अनुष्ठान?” मैंने थोड़ा मुस्कुराकर पूंछा.
“ शुरू के तीन महीने तक. उसके बाद मैं आस पड़ोस के घर आने जाने लगी थी. हमारे सामने एक आंटी रहती थी . बहुत अच्छी थीं. मुझे बहुत मानती थी. बिलकुल मेरी सास की तरह. उनके यहाँ पिछले साल टायलेट बना था. अक्सर खाली समय में मैं उनके घर जाया करती थी. उनसे बतियाती. उनकी कंघी करती. पैर दबाती. कभी कभार गेंहूँ चावल भी बिनवा लेती. एक दिन यूँ ही मेरे मन में एक बात आ गयी. अब जब भी कभी मुझे लैट्रिन लगती मैं सामने आंटी के घर चली जाती. मेरे और उनके घर में बस दो नालियों और एक 5 फुट की चौड़ी सड़क का ही फासला था. मैं उनसे बतियाने के बहाने जाती, पर थोड़ी देर में पेशाब करने के बहाने उनके गुसलखाने में घुस जाती. फिर फटाफट लैट्रिन कर लेती. एक-दो दिन तो वो भाप नहीं पायीं. पर वो बहुत होशियार थीं. कहती तो कुछ नहीं पर अभी मैं इधर बैठी नहीं कि उधर बाहर से दरवाजा खुद खटखटाने लगती या फिर अपनी बहु को भेज देती. निकलते समय मैं उनसे निगाह न मिला पाती. आंटी का बात व्यवहार एक बात थी पर मेरा गुसलखाना इस्तेमाल करना उनको गवारा न था. पेशाब करना तोएक-आध बार को चलो कोई बात नहीं थी पर शौच के लिए तो वह किसी भी पड़ोसी को पैखाने के पास फटकने नहीं देती थी.यहाँ तक कि मेरे लिए भी बहुत सजग रहती थी. कई बार मुझे लगा कि मेरी चोरी पकड़ने के लिए जैसे उनकी बहू दरवाजे से कान सटा कर खड़ी हो. दरवाजा खोलकर बाहर निकलती तो सामने उनलोगों को खड़े पाकर मैं झेप जाती. हडबड़ा कर मुँह से निकल ही जाता “क्या बताऊँ आंटी, बहुत जोर से लगी थी”. फिर उनको खुश करने के लिए अन्य घरेलू कार्यों के लिए वहाँ थोड़ा और वक्त बिताती.
“फिर कब तक चली तेरी ये चाल?”
“ यूँ तो मैं बहुत सावधानी बरतती थी, एक-दो बार तो मैं लैट्रिन करके अपने आप को धुली ही नहीं. कहीं छप- छप की आवाज से सास-बहु को पता न चल जाये. वहाँ लैट्रिन करती फिर अपने घर के आँगन में जाकर धुलती. निकलने से पहले सीट अच्छे से साफ़ कर देती ताकि उनको पता भी न चले. एक बार तो साफ़ कर ही रही थी कि उनकी चुड़ैल बहू दरवाजा खटखटाने लगी. पानी गिराने पर भी मैला सीट से चिपका हुआ था. डर के मारे हडबड़ा कर मैंने उसको तुरंत हाथ से पोछ दिया. फिर सहजता दिखाते हुए बाहर निकली. छिः. फिर उसी वक्त घर जाकर कपड़े वाले साबुन से कई बार हाथ धोया. फिर भी मन कुछ दिन तक घिनघिनाता रहा. मन में आया कि इससे अच्छा तों सड़क की तरफ ही चली जाया करूँ” पर सोचना एक अलग बात थी और जाना दूसरी बात. मैं उनके यहाँ जाती रही.
“फिर तुम्हे तेज़ाब पीने की नौबत क्यूँ आ पड़ी? !”
“आंटी की बहू को बच्चा होने वाला था. वो अपने मायके गयी हुई थी. ये मेरे लिए एक सुकूनदायक स्थिति थी. मुझे बहुत जोर से लगी थी. आंटी भी रिश्तेदारी में गई हुई थी.केवल उनका बेटा सुहास घर में था. मैं गेट खोलकर जैसे ही अंदर घुसी कि तभी वह बाहर आ गया. मुझको देखकर मुस्कुराया फिर बोला “कोई बात नहीं, अपना ही घर समझो”. संभवतः उसको मेरे बारे और घर आने के कारणों की पूरी जानकारी थी. फिर भी उनकी बातें सुनकर बड़ी तसल्ली हुई. सोचा आंटी ने इसको कितने अच्छे संस्कार दिए हैं.
“अगले दिन फिर मैं जब पहुँची तब वह चाय पी रहा था. मुझसे भी चाय के लिए आग्रह किया. मेरे मन में संकोच तो हुआ पर मैं न नहीं कह पायी. फिर बातें होने लगी. फिर रोज बातें होने लगी. फिर उसने हंसी मजाक करना शुरू कर दिया. दो-अर्थी बातें. मैंने सोचा मजाकिया स्वाभावबस ऐसा है. मैं भी जब-तब उसे छेड़ देती. पर एक दिन जब मैं वापस लौट रही थी कि इतने में वह पीछे से मुझे अपनी बाँहों में जकड़ लिया. मैं सकपका गयी. मुझे इस किस्म के हरकत की तनिक भी आशंका नहीं थी. “ये क्या कर रहे हों आप ?” मैंने झट से खुद को उससे अलग किया. पलट कर उसकी तरफ देखा फिर दरवाजे की तरफ लपकी . “अरे तुम तो बुरा मान गयी, मुझे लगा कि तुम भी...” पीछे से उसकी हैरत भरी आवाज़ आयी. वह पूरा नहीं बोला या मैं बस इतना ही सुन पायी थी. मैं कुछ भी नहीं सुनना चाहती थी. मैं उसके गेट से बाहर निकल चुकी थी. हांफते हुए घर पहुची. रोई. पछतायी. पर फिर सोचा कि जो हुआ सो हुआ. किसी को नहीं बताउंगी. बेकार की बदनामी होगी. सोचा कि अब उस घर में नहीं जाउंगी. रात भर बेचैन रही. बहुत सारे विचार मन में आते गए. अपना बुरा-भला सोचती रही जबतक कि मैं एक नतीजे पर नहीं पहुच गयी.”
“अगली शाम जब मैं लैट्रिन के लिए सड़क की ओर निकली तो थोड़ी दूर जाकर मेरे कदम रुक गए. असमंजस में पड़ गयी. मैं वापस लौटी. अपने घर कि तरफ झाँका. कोई भी बाहर नहीं था. मैंने आंटी का गेट खोला और उनके पैखाने में साधिकार घुस गयी. मेरे कई डर खत्म हो चुके थे. उस दिन बहन जी जो सुकून महसूस हुआ, मैं बयां नहीं कर सकती. उस दिन लगा मैं भी इंसान हूँ. जितने पल बैठी रही, सब इत्मीनान के पल थे. वहाँ कोई घूरती आँखें नहीं थी. दिल दहलाने वाली रौशनी नहीं थी. एक जीरो वाट का बल्ब जल रहा था. वहाँ ३ दीवारों और एक दरवाजे के दरमियाँ मैं थी. पूरी मैं. पेट साफ़ हुआ. मैं प्रसन्नमुख बाहर निकली. फिर वही क्रम दोहराया गया. सुहास आये. अंदर बुलाया. फिर कुछ दिनों तक पहले का क्रम चला . फिर वही हुआ, बस थोड़े अंतर के साथ. इस बार मेरा विरोध नहीं था. मैं बाहर निकली जैसे कोई बाज़ी मार ली हूँ. जीकर मरना मरकर जीने से बेहतर होता है. एक हफ्ता ऐसे ही चला. पर मेरा यूँ बार-बार सुहास के घर जाने से मेरी सास को शक हो गया. वो मुझपे नज़र रखने लगी. एक बार मैं टायलेट से बाहर निकली, एहतिहातन अपने घर की ओर देखा तो सास-ससुर घूर रहे थे. कुपित. पहली बार उनकी आँखों में मेरे लिए गुस्सा देख था मैंने. पर मैं अभी संतुष्ट नहीं हुई थी. उनको अनदेखा कर सुहास के आंगन में चली गयी. उन लोगों ने भी मुझे पुकारा नहीं. शायद लोकलाज से आवाज न निकल पाई हो. पर ये उनकी कमजोरी थी, मेरी नहीं. मैंने इसी को अपना हथियार बना लिया. मेरा ये रवैय्या उनके लिए एक दंड था. ये दंड मेरे पति के लिए भी था जो मेरी लाख शिकायतों के बावजूद अपने बाप को मेरी तकलीफें न समझा सका.”
“मैं विद्रोही हो चुकी थी. सच कहूँ मैडमजी मैं अंदर से कहीं चिढ़ सी गयी थी. मेरी अंदर की चिढ़ ने मुझे इतना गिरा दिया. मुझे लगा कि यदि ये मेरा शरीर है तो इसके अंदर की आत्मा भी तो मेरी ही है. लोग भले ही मेरे शरीर के अंगों को देखेते हों पर कष्ट तो मेरी आत्मा को ही होता है. इस शरीर और उसकी नित्यक्रियावों की वजह से मेरी आत्मा को बहुत कष्ट हुआ है. जिन अंगों को ढँकने-छुपाने में मेरा जीवन बीत रहा है उनसे मुझे बहुत चिढ़ सी हो गयी. भला क्यूँ दिया इश्वर ने मुझे ये छाती,ये जांघे, ये नितम्ब. क्यूँ? क्यूँ एक औरत पूरी जिंदगी इनको छिपाते फिरती रहती है. प्राण के लिए तो और भी जरूरी अंग हैं. गुर्दे , फेफड़े, अंतडियां, पेट. ऊपर से भूंख. इनका क्या?. जीवन तो इन्हीं से चलता है न!. पर दिखावटी अंगों को इतनी महत्ता!!. क्यूँ? लगा कि यही जिम्मेदार हैं मेरी परेशानियों के लिए . अब मैं बेपरवाह रहूंगी इनको लेकर. ये मेरी देह है, मैं निर्णय करुँगी कि इसे दुःख दूं या इससे दुखी रहूँ. मैं अपने अंगों के बीच समाज वाला भेदभाव नहीं करुँगी. एक अंग की तथाकथित गुप्तता और पवित्रता के कारण अन्य सारे अंगों को कष्ट! ये कहाँ का न्याय है? मुझे समझ में नहीं आया, न ही इसके आगे कुछ समझना चाहती थी. अपने ही दो अंगों में भेद!! मुझे गवारा नहीं था. ये मेरी आत्मा कि आवाज थी. अभी तक जिस शरीर की वजह से मेरी नज़रें झुकती थी उस की फ़िक्र तो बिलकुल नहीं करनी. और पवित्रता की बात तो बिलकुल नहीं. ये मेरा फैसला था. किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा. बताने की जरूरत भी नहीं. अपने पति को भी नहीं जो शादी के बाद जो इस शरीर को सिर्फ भोगने का अधिकारी रहा है, जिसको मेरी पीड़ा का कोई अंदाज़ा नहीं रहा है ”
“तो क्या ये सब अपने पति से बदले की भावना से किया तुमने?”
“ नहीं मैडम, बिलकुल नहीं. मेरी लड़ाई मेरे खुद के शरीर से थी, मेरे पति से नहीं. ये मुझे निर्णय लेना था कि मुझे इस शरीर के साथ क्या करना है”
“मुझे एक पल को नहीं लगा कि मैंने घाटे का सौदा किया है. हाँ कुछ पल को जरूर लगा कि अपने पति से छल कर रही हूँ. पर फिर संभल गयी. जैसा सैकड़ों राहगीर मुझे अपने कल्पनाओं में जीते होंगे, यहाँ कोई हकीकत में जीता है. वहाँ खुली सड़कें हैं, यहाँ बंद दरवाजे. वहाँ अनजान सैकड़ों आँखें हैं, तो यहाँ एक जोड़ी पहचानी आँखें, एक जोड़ी हथेलियाँ , एक जोड़ी होंठ. वहाँ मैं हर पल मरती थी. यहाँ मैं कुछ पल जी भी लेती थी. सच कहूँ कभी तो लगता था कि पूरी रात यहीं रुक जाऊं. इसी घर में. दिल करता कि सुहास की बीवी खत्म हो जाये फिर मैं इस घर की मालकिन बन जाऊं. हफ्ते भर के आँख मिचौली, छुवन छुवाई के बाद एक दिन मैं खुद को संभाल नहीं पायी. फिर बहुत कुछ हुआ उन आशंका और डर के लम्हों के बीच...” विद्या कहते कहते रुक गयी.
“सच बताओ, कहीं तुम सुहास को चाहने तो नहीं लगी थी?” मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी.
“सच कहूँ, नहीं. मुझे बस ऐसा लगता जैसे शुलभ शौचालयों में कुछ रूपये देकर लोग लैट्रिन करते हैं, मेरे लिए सुहास की हरकतें बस उसी कुछ रूपयों की तरह थीं. सुहास के छूने से अब मुझे घिन नहीं आती थी, कभी नहीं लगा कि मैं अपवित्र हुई हूँ. उलटे पेट साफ़ होने पर लगता कि मैं अंदर से स्वच्छ हो गयी हूँ. बिना जरूरत के मैं एक बार भी उसके घर नहीं गयी. न ही कभी एक पल के लिए इसका कोई ख्याल आया. सुभास को भले लगा हो कि वो मेरी मजबूरी का फायदा उठा रहे हों, पर मैं हमेशा वहाँसे विजयभावसे लौटती थी. हाँ, एक और अंतर आया था. सुकून देने वाला. मेरी देह सुधर रही थी. मैं अक्सर अपने पेट को छूकर देखती. अच्छा लगने लगा था. 10 दिनों में मैं बिलकुल बदल गयी थी. सुहास के छेड़खानियों से मन में एक अधूरी प्यास सी जगती. शाम में पति के लौटने का इंतज़ार करती. इससे मेरा अपराधबोध भी जाता रहा. इससे पहले अपने पति के साथ सम्बन्ध में इतनी तरलता कभी न आई थी. अब जाकर पूरे 6 महीने बाद मुझे अपनी रातें छोटी परन्तु मनमोहक लगने लगी थीं.
“क्यूँ, अब तक क्यूँ नहीं?” मैंने विद्या को छेड़ा.
“पहले का क्या बताऊँ मैडम, शर्मिंदगी के कारण मैं बहुत नागा करती थी. लिहाजा पेट में बहुत गैस बनती थी. रात में जब भी पति करीब आता तो मैं बहुत घबरा जाती. कई बार तो लगता कि पहले पेट साफ़ कर आऊं, पर सकुचाने में देर हो जाती. तब तक मेरे पति का पैजामा उतर चुका होता था. लाख कोशिशों के बावजूद लगता कि बस अब बिस्तर पर ही मलत्याग दूंगी. मेरा सारा ध्यान अपने शरीर के दूसरे अंग पर नियंत्रण पर ही लगा रहता. बहुत गैस निकलती. मुझे लगता जैसे मैं सड़ गयी हूँ. एक बदबू का ढेर हो गयी हूँ. मेरे आदमी को इससे बहुत शिकायतें होती. खूब खरीखोटी सुनाता, पर अपना मन भर जाने के ही बाद. हर रात मुझे लगता कि मैं एक सुखा कुआँ हूँ. जिसमें किसी नाले का पानी ही गिरता है. उसमें अपने श्रोतों का पानी बिलकुल नहीं है. लेकिन पिछले एक महीने में सब बदल गया . ऐसा लगा कि मैं जिन्दा हूँ. मेरे अंदर भी एक दरिया है जो बहना जानती है.”
“फिर तू पकड़ी कैसे गयी? अस्पताल कैसे पहुँची?”
“उस दिन मैं अंदर ही गयी थी कि लगा कोई गेट पर है. हम दोनों थोड़ा सतर्क हुए पर तब तक कुण्डी लगने की आवाज आई. और फिर जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज. मैंने खिड़की से झाँक कर देखा. ये सुहास की बीबी थी. पेट पकड़ कर खड़ी थी. जाने कहाँ से टपक पड़ी चुड़ैल!. जाने किसने चुगली कर दी थी!”
“फिर ..?”मेरी भौंहे सिकुड़ गयीं.
“फिर की मत पूछिए मैडम जी....” उसका गला भर आया. आवाज जैसे आँसुओं के पीछे अटक से गए हो. पहले आंसुओ ने आँखों का बंधन तोड़ा फिर आवाज ने गले का. गहरी साँस लेकर बोली “ ..पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया. मेरे घर वाले, मेरा घर वाला, बच्चे बूढ़े औरतें, सबकी आँखें मुझको घूर रहीं थीं. इतने लोग कहाँ से आ गए? ताज्जुब हुआ किउन छोटे-छोटे घरों में इतने सारे लोग रहते हैं! अबतक मैं बस मोहल्ले की कुछ दस-बारह औरतों को ही जानती थी. आज उन सब का सामना करना पड़ रहा था. चक्कर सा आने लगा. बहुत हिम्मत जुटा कर बाहर आयी.
“उसकी बीबी बोले ही जा रही थी. जो जी में आया. हरेक बोल से लगता जैसे एक एक करके मेरे तन से कपड़े उतरते जा रहे हों. मैं निर्वस्त्र महसूस करने लगी. ऐसा लगा जैसे सब मुझे नहीं मेरे अंगों को देख रहे हों. अपने किये पर पछताने लगी. क्यूँ ऐसा किया. इस दिन से तों अच्छा सड़क पर ही जाती रहती.सिर भारी हो गया. क्या कहूँ, क्या सफाई दूँ, किधर जाऊं? कुछ सूझ ही नहीं रहा था. ऐसा लगा कि मेरा सबकुछ लुट चुका है. माँ की याद आयी. मुझे रुलाई आ गयी. पर मैं इतनी डर गयी थी कि रो भी नहीं पा रही थी. अब क्या होगा मेरा? बस दिल किया कि धरती फूटे मैं उसमे समां जाऊं. किसी को भी मुझसे तनिक भी हमदर्दी नहीं हुई. मैंने चारो तरफ नज़र दौड़ायी कि कहीं कुछ मिले जिससे मुझे इस यातना से मुक्ति मिल सके. मुझे पैखाने में रखी बोतल दिख गयी. कुछ नहीं सूझा. लपक कर ढक्कन खोला और पी गयी ....पूरी तेज़ाब एक साँस में....और..फिर ये सब....” इसके आगे विद्या कुछ बोल न सकी. न मैं सुन सकती थी.
एक पल को ऐसा लगा कि मेरा गला सूख गया हो. मैं बस उसके जले उजले होंठों कोघूरती रही जो कभी सुर्ख गुलाबी रहे होंगे. सोचना बहुत मुश्किल नहीं था कि कैसे तेज़ाब ने उसके शरीर के अंतड़ियों के बीच से अपना रास्ता बनाया होगा. तेज़ाब को मैंने अबतक बस अपने लैब में ही महसूस किया था. नाक को भेद देने वाली दुर्गन्ध, तीछ्ण, अति-तीछण. सूंघना दूभर तो पीना कैसा होता होगा. कितना भी पानी मिला हुआ हो, पर तेज़ाब तो तेज़ाब ही होता है. मुझे याद आया जब मैंने पहली बार कोला पीया था. लगा कि पूरा गला जल गया, एक ठंढी सी जलन. अनायास ही हाथ मेरे गले पर चला गया. तेज़ाब पीना !.भला कोई ऐसा कैसे कर सकता है? बेचारी अपने शरीर की पवित्रता गवाँकर कर भी अपने अंतरमन को कष्ट मुक्त न कर सकी थी . कितनी असहाय हुई होगी इस कदम को उठाने से पहले? क्या इन सब की जड़ वाकई में सिर्फ खुले में शौच करना है? कैसी परिस्थितियां होती होंगी? कोई दूसरी औरत क्या करती? मैं क्या करती उसकी जगह पर? विद्या की कहानी मुझे एक चुनौती दे गयी. मुझे अहसास हुआ की मैं अभी विद्या को लेक्चर पिलाने या काउंसलिंग करने योग्य नहीं हूँ. मैंने विद्या को उसके घर ड्राप किया. रास्ते में मैंने वह जगह भी देखी जहाँ विद्या और उसके मोहल्ले की औरतें शौच के लिए आती हैं.
विद्या के इलाज़ के दौरान मैंने उसके हालात के बारे में जानने की कोशिस की थी. पर आज उसके जिंदगी की हर हकीकत मेरे सामने थी. जितनी उत्सुकता अब तक उसकी जिंदगी को समझने की थी अब मैं उतनी ही उद्द्वेलित थी उसकी जिंदगी जीने को. मैं उसकी तरह मरने की हिम्मत तो नहीं जुटा सकती थी. पर हाँ,कुछ पल को उसी की तरह जीना चाहती थी, विद्या बनकर.
सुबह के 5 बज रहे थे. हल्का कुहरा छाया हुआ था. दिन निकलने में अभी घंटा भर होंगे. मैं अपनी कार से उस जगह पहुंची. दुकानों के शटर गिरे हुए थे. पर उनकी शाइन-ग्लो वाली होर्डिंग चमक रहीं थी. मैंने उस स्ट्रीटलाईट को भी देखा. मेरे मील का पत्थर. मैं अपने रणभूमि पर पहुँच चुकी थी. कार को किनारे पार्क किया. सड़क क्रास किया. दो–तीन औरतें सड़क की तरफ पीठ किये हुए बैठे दिखी. बहुत दुर्गंद थी वहाँ. बद्बू से बचने के लिए मैंने दुपट्टे की कई परतों से नाक को ढँक लिया. मेरे चेहरे पर एक नकाब सा बन गया. मैं सँभलते हुए आगे बढ़ने लगी. फिर भी क़दमों के नीचे एक नरम फिसलन पड़ ही गयी. सैंडल न पहनते बन रहा था न ही उतारते. पूरा शरीर घिनघिना उठा. फिर भी उसी तरह आगे बढ़ी. मुझे अपना संकल्प पूरा करना था. मुझे कुछ पल के लिए विद्या बनना था, फिर उसी पल को समेट का पूरा जीवन जी कर दिखाना था. खुद को. साथ लायी हुई पानी की बोतल को जमीन पर रखा. चारो तरफ निगाह दौड़ायी. धड़कते दिल के साथ जींस नीचे खिसकाई और बैठ गयी. मैं एक बनावटी दृढ़ता के साथ सड़क की तरफ देखने लगी. हर आहट पर अपने आप भिंच जाती. पर मुझे अपनी आँखे खुली रखनी थी. सड़क सुनसान थी. चारोतरफ हल्का अँधेरा था. एक गाड़ी आती दिखाई दी. रौशनी तेज होती गयी. फिर हेडलाइट की फैली रौशनी मेरे ऊपर से गुजरी तो अपने आप चेहरा नीचे की ओर झुक गया. एक पल में डाक्टर सुरभि से विद्या बन गयी. मैं यही सोचती रही कि अगर गाड़ी वहीँ रुक जाती या धीमी हो जाती तों मैं क्या करती. खैर, गाड़ी चली गयी.धुंध की एक नरम दीवार फिर से मेरे चारो तरफ फैल गयी. ऊपर लगे स्ट्रीट लाइट की किरणें जैसे एक पीले गोले की आकार में कैद हो गईं हों. उसके बाहर जैसे कुछ नहीं हो. बस एक सुनसान अँधेरा और कुछ पदचापों की आवाजें. चप्प्लों की चट चट की आवाजें तेज होती जातीं. साड़ी में लिपटे साये कुछ दूर जाकर बैठ जाते. आज दुश्वारियां कम थी. न कोई घूरती निगाहें. न कोई तेज रौशनी. चारो तरफ एक गहरा अँधेरा था. करीब10 मिनट हो गए. तभी कई चीखें एक साथ सुनाई दी, साथ ही दर्जनों क़दमों के दौड़ने की आवाजें. कई औरतें बेतहाशा भाग रहीं थी. जाने क्या बला आ गई!. लगा कोई हिंसक जानवर आ गया हो या कोई सांप निकल आया हो. मैं घबरा गयी. झट से जींस को ऊपर खींचा और गाड़ी की तरफ दौड़ पड़ी. बोतल वहीँ छूट गया. उस सर्द मौसम में सिर्फ कुछ कदमों की दौड़ से मेरे माथे पर पसीने की बूँदें छलक आयीं. अब मैं गाड़ी में थी. झट से दरवाजा बंद किया. गाड़ी स्टार्ट की. थोड़ी देर देखने को रुकी कि आखिर यहाँ हुआ क्या है. मैं उस जगह को देख रही थी जहाँ मेरा बोतल छूटा था. कुछ महिलाएं भागती हुई आयीं . उनके पीछे कुछ वर्दी वाले. चिल्लाते हुए. “भागो यहाँ सेसूअरों, मादरचोदों तुम्हारे हगने के लिए बनाया है सरकार ने ये सड़क”. ये पुलिस वाले थे. गस्त पर. हाथ में डंडा लिए हुए. एक में डंडा फेक कर मारा. डंडा झुण्ड की एक लड़की को लगी. वो गिर पड़ी. फिर दूसरे ने उसका बाल पकड़ कर दो तीन थप्पड़ जड़ दिए. तीसरे ने छुड़ाया “अरे बस कर नहीं तो अभी यहीं हग देगी”. एक अट्टाहस छूटा. मानो कोई लतीफा कहा गया हो. लड़की चीखती हुई जान छुड़ा कर भागी. मैंने गाड़ी को गियर में डाला. हेड लाइट आन की. झल्लाहट में हार्न बजाया. जी में आया कि उन सिपाहियों पर गाड़ी चढ़ा दूं. रौंद दूं इन्हें इन्हीं सड़कों पर. पर इस समय गाड़ी में डाक्टर सुरभि थी विद्या नहीं. अब मुझे अपने बदन से चिपके मल का एहसास हुआ. मेरा अपनी सीट पर बैठना मुश्किल हो रहा था. पैर गीला लग रहा था. मैं तुरंत घर पहुंचना चाहती थी. भाग कर बाथरूम में. मैंने चौराहे से गाड़ी को घुमाया. अपने घर की तरफ. अब मैं महात्मा गाँधी रोड पर थी. थोड़ा सैंयत, थोड़ा सोचने की स्थिति में. विद्या की शिकायतें सड़कों की आँखों से थी. पर आज लगा कि इन सड़कों के हाथ पैर भी होते हैं. लाठियां भांजने वाले!
आँख वाली सड़कें : लेखक आशुतोष कुमार
Reviewed by कहानीकार
on
September 05, 2017
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