एक साक्षात्कार : लेखक राजीव आनंद

जुही पांडेय नेता, अफसर, काॅरपोरेट टायकून, बाबा आदि का साक्षात्कार लेते-लेते उब चुकी थी. उसे कुछ ऐसे लोगों का साक्षात्कार करना था जो उसके जनसरोकार पत्रिका के ‘कुछ अलग’ काॅलम में फिट बैठता हो. ढ़ंूढ़ते-ढूंढते जुही को लावारिस लाशों के सहारे अपनी जिंदगी की गाड़ी को खींचने वाले लोगों से भेंट हो गयी. उसने हारू बाउरी, परेश हाड़ी, कुश बाउरी से बातें की और कुश बाउरी का साक्षात्कार लिया जिसका संपादित अंश प्रस्तुत है. लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार आप कैसे करते है, जुही ने पूछा ? कुश बाउरी ने कहा कि कोई षौक से तो नहीं करते लेकिन विरासत में मिले इस काम के अलावा हम कोई दूसरा काम कर नहीं सकते. जुही पांड़ेय सोचने लगी कि सरकार की खामियों से अगर सौ नुकसान है तो एक-दो फायदे भी है. रेल की पटरियों पर पड़ी लावारिस लाशों का अगर सही ढ़ंग से अंतिम संस्कार कर दिए जाते तो कुश बाउरी जैसे लोग अपना परिवार कैसे चलाते ? जुही की तंद्रा जैसे टूटी उसने पूछा अच्छा एक लाश को ठीकाने लगाने के लिए कितना मिलता है आपको ? रेलवे की ओर से, कुश कह रहा था, हर माह पंद्रह सौ रूपए मिलते है परंतु अगर किसी माह में कोई लाश नहीं मिली तो पूरे महीने मात्र पंद्रह सौ रूपए में ही काटना पड़ता है लेकिन अगर लाश मिल गयी तो प्रति लाश एक हजार रूपया उसे मिल जाता है, उसी में लाष को पोस्टमार्टम हाउस से मशानघाट तक ले जाकर जलाना या दफनाना पड़ता है, इसी पैसे में वाहन खर्च भी शामिल रहता है. आगे कहना जारी रखते हुए कुश कहता है कि कुल मिलाकर एक हजार प्रति लाश में चार सौ रूपए खर्च हो जाते है. इस काम को करने में तीन लोगों की जरूरत पड़ती है. बचे छह सौ रूपए में ही तीनों में बंटवारा होता है यानी दो सौ रूपए ही प्रति व्यक्ति को मिल पाता है. जुही को महसूस हुआ कि कितना विचित्र है विधाता का विधान, मरने के नाम से किसे डर नहीं लगता पर समाज का एक तबका ऐसा भी है जिसे लाश देखकर खुषी होती है, आंखों में चमक आ जाती है. जुही ने कुश से पूछा, कैसा लगता है आपको ये काम करके ? कुश ने कहा कि आमूमन ताजा लाश के क्रियाक्रम में तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन सड़ी-गली बदबूदार लाशों का अंतिम संस्कार काफी कष्टप्रद काम है. जब कोई सड़ी-गली बदबूदार लाश से भेंट हो जाती है तो फिर मुझे शराब पीनी पड़ती है और जब नशा चढ़ जाता है तब ही लाष का अंतिम संस्कार कर पाता हॅंूं इस काम को करने में अच्छा तो नहीं लगता पर परिवार चलाने की मजबूरी है, करना पड़ता है. अच्छा कुश ये बताइए कि समाज में लोगों का आपलोगों के प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है, जुही ने पूछा ? लाशों के डिस्पोजल करने वाले अपने काम को लेकर किसी को नहीं बताते है, कुश ने कहा. अगर इस काम के बारे में बता दे ंतो लोग हमसे और हमारे परिवार से घृणा करने लगेंगे और हमारे परिवार के साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहेंगे, कुश निराशा के साथ सबकुछ जुही को बता रहा था. बस आखरी सवाल कुश, वो कौन सा अनुभव है जिसे सबसे खराब कहा जा सकता है, जुही ने पूछा ? कुष कुछ देर सोचता रहा फिर कहना शुरू किया, जब कोई सड़ी-गली बदबूदार लाश का अंतिम संस्कार करता हॅंू न मेम साहब, तो तीन चार बार साबून से हाथ धोने के बाद भी लाश की संड़ाध की गंध हाथों से नहीं जाती, उन दिनों चैबीसों घंटें शराब के नषे में रहना पड़ता है नही ंतो खाना-पीना ही मुश्किल हो जाता है. जुही से रहा नहीं गया, उसने कुश को एक पांच सौ का नोट यह कहते हुए देना चाहा कि आपने अपना कीमती वक्त मुझे दिया पर कुश ने कहा, मेम साहब, पैसा कम ही सही पर मैं भी कमा लेता हॅंू, पैसे मैं आपसे नहीं ले सकता. आपने मेरी कहानी सुनी और दुनिया को सुनायेंगी, यही बहुत है मेरे लिए.
एक साक्षात्कार : लेखक राजीव आनंद
Reviewed by कहानीकार
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September 06, 2017
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