वसीयत : लेखक डा. लता अग्रवाल
बचपन में मां कहा करती थीं कि बेटियों से डर नहीं लगता उन के साथ क्या होगा उस से डर लगता है. शायद ठीक ही कहती थीं. वृंदा को आज इस कहावत का अर्थ भलीभांति समझ आ गया है. मानो मां उस के भविष्य का लेखा पहचान गई थीं. इसीलिए यह कहावत दोहराती थीं. फिर 1 या 2 नहीं पूरी
3 बेटियां जो उतर आई थीं उन के आंगन में. इसीलिए मां को फिक्र होती कि कैसे होगी तीनों की परवरिश. पहले पढ़ाई फिर ब्याह? सब से छोटी मैं (वृंदा) थी.
मां को चिंतातुर देख पिताजी कहते, ‘‘क्यों बेकार में चिंता से गली जा रही हो. सब अपनीअपनी मेहनत ले कर आई हैं.’’
‘‘अजी, तुम्हें क्या पता जब मैं 4 औरतों के बीच बैठती हूं तो उन का पहला सवाल यही होता है कि कितने बच्चे हैं आप के? जब मैं कहती 4. 1 लड़का और 3 बेटियां तो सुनते ही सब के मुंह इस तरह खुले रह जाते मानो कोई अनचाहा जीव देख लिया हो. फिर उन की टिप्पणियां शुरू हो जातीं...
‘‘आज तो एक बच्चे को पालना ही कितना महंगा है उस पर 4-4 बच्चे. उन में भी 3 बेटियां, बहनजी कितनी टैंशन होती होगी न आप को...’’
‘‘उफ, तो यह टैंशन उन औरतों की हुई है तुम्हें... तुम बैठती ही क्यों हो ऐसी औरतों के बीच? अगर अब कुछ कहें तो कहना कि बहनजी हमारी बेटियां हैं. कैसे पालनी हैं हम देख लेंगे. आप टैंशन न लो.’’
पिताजी बड़े ही मजाकिया तरीके से मां को शांत कर देते. समय को देखते हुए शायद मां की चिंता भी जायज थी. दरअसल, कुल को रोशन करने वाला चिराग तो उन के घर में पहली बार में ही जल गया था, यह तो संयोग कहिए कि उस के बाद कृष्णा, मृदुला और फिर मैं एक के बाद एक
3 बेटियां आती चली गईं. पापा बिजली विभाग में अच्छे पद पर थे, इसलिए आर्थिक परेशानी न थी. मैं घर में सब से छोटी थी, इसलिए सब की लाडली थी. उसी लाड़प्यार ने मुझे कुछकुछ शरारती भी बना दिया था. किसी भी बात को ले कर जिद करना मैं अपना हक समझती. मेरी हर जिद पूरी भी कर दी जाती. यहां तक कि कभी दीदी और भैया की कोई चीज पसंद आती तो झट रोतेरोते मांपापा के पास पहुंच जाती कि मुझे वह दीदी वाला खिलौना चाहिए... वह भैया वाली कार दिलाओ न.
तब मां झंझट टालते हुए दीदीभैया से कहतीं, ‘‘अरे कृष्णा, मृदुला दे दो न बेटा... छोटी है यह. क्यों रुला रहा है अपनी छोटी बहन को... इतनी सी चीज नहीं दे सकता. कैसा भाई है...’’
पापा ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार हम सभी को कौन्वैंट स्कूलों में पढ़ाया. अमृत की व्यवसाय में रुचि थी, इसलिए एमबीए कर के उन्होंने अपना बिजनैस जमा लिया. दोनों बहनों ने भी अच्छी शिक्षा पाई. फिर पापा ने तीनों का विवाह भी अपनी हैसियत के अनुसार अच्छा घर देख कर कर दिया. बीच शहर में लंबाचौड़ा मकान भी बन गया. दोनों बहनें अपनीअपनी ससुराल चली गईं. रह गए घर में मैं, मांपापा और भैयाभाभी. हम बहनें पापा के बहुत करीब थीं. अपने मन की हर बात उन से शेयर करतीं, इसलिए दोनों बेटियों के जाने पर पापा उन्हें बहुत मिस करते. वे कहते कि अब वृंदा का ब्याह आराम से करूंगा... घर में जब तक अमृत के बच्चे भी हो जाएंगे.
एक दिन अचानक हमारी खुशियों पर उस समय ग्रहण लग गया जब एक सड़क हादसे में पापा हमें छोड़ कर चले गए. उन के जाने का सब से अधिक खमियाजा मां के बाद मुझे ही भुगतना पड़ा. सब का घरसंसार बस चुका था. मगर मेरे सपने तो अभी कुंआरे ही थे. अब कौन इतने अरमानों से मुझे डोली में बैठा कर बिदा करेगा? वक्त कैसे पल में करवट बदलता है, यह मैं ने पापा के जाने पर देखा. घर की सब से लाडली बेटी देखते ही देखते बोझ लगने लगी. शायद इसी को चक्रव्यूह कहते हैं. घर में सभी को मेरे ब्याह की चिंता सताने लगी.
चूंकि सारी व्यवस्था पापा ने पहले ही कर रखी थी, इसलिए आर्थिक रूप से कोई परेशानी न सही, मगर कुछ अरमान थे, जिन्हें दौलत के तराजु में नहीं तोला जा सकता. खैर, यहीं आ कर मानसिकता का रहस्य खुलता है कि हम न चाहते हुए भी घटनाओं का उलझना देखते रहते हैं, अनजान दिशा में बढ़ते चले जाते हैं.
व्यापार के सिलसिले में भैया का यहांवहां, आनाजाना लगा रहता था. वहीं उन की मुलाकात वरुण से हुई. भैया को वरुण होनहार, सज्जन और लायक लगे. उन के परिवार में मां के अलावा और कोई न था. इस से अच्छा रिश्ता कोई हो ही नहीं सकता... छोटा परिवार अपने में स्टैबलिश. हर मांबाप ऐसे रिश्ते को झपट कर हथिया लेते हैं. मां ने भी फौरन हां कर दी. मेरी जिम्मेदारी से मुक्ति पा कर मां तो मानो गंगाजी नहा गईं.
वरुण का अपना व्यापार था. उन के भी पिता नहीं थे. परिवार के इकलौते बेटे. मां और वे. कुल मिला कर हम 3 प्राणी थे. किसी प्रकार की कोई परेशानी न थी. अपनी मेहनत और लगन से वरुण ने व्यापार भी अच्छाखासा जमा लिया था. कालीन पर चलतेचलते सफर का अंदाजा ही नहीं हुआ कब 2 साल बीत गए. अब तो प्रियांश भी गोद में आ गया था.
मगर वक्त हर जख्म पर मरहम लगा देता है. पापा की स्मृतियां धीरेधीरे धूमिल होती जा रही थीं. वरुण के प्यार और प्रियांश की परवरिश में मैं ने खुद को पूरी तरह रमा दिया था. सब कुछ ठीक चल रहा था कि कुछ दिनों से वरुण पैरों में दर्द रहने की शिकायत करने लगे.
शुरू में सोचा काम की थकान की वजह से हो रहा होगा. वरुण ने घर बनाने के लिए बैंक से लोन ले रखा था. बस उस की पूर्ति के लिए रातदिन मेहनत करते. कुछ घरेलू उपचार किए, मालिश कराई, मगर दर्द था कि मिटने का नाम ही न लेता. वरुण दिनबदिन कमजोर होते जा रहे थे. न खाने में, न ही सोने में उन की रुचि रही. सारी रात पैरों की पीड़ा से कराहते.
सच, देखी नहीं जाती थी उन की यह तकलीफ. इन 4 महीनों में तोड़ कर रख दिया था इस दर्द ने उन्हें. वजन तेजी से घट रहा था. सिर के बाल तेजी से सफेद होने लगे. नींद पूरी न होने से चिड़चिड़े से हो गए थे. इन 4 महीनों के दर्द ने उन्हें 40 साल का सा लुक दे दिया था.
अफसोस, मैं चाह कर भी रातों में उन के दर्द के साथ जागने के और कुछ न कर सकी. बस पैरों को हलकेहलके दबाती रहती. जब हाथों का स्पर्श ढीला पड़ जाता तो वरुण समझ जाते कि मैं थक गई हूं, तब मेरा मन रखने को कह देते कि अब आराम है. सो जाओ. इंदौर तक डाक्टरों से इलाज कराया, मगर रोग था कि पकड़ में ही नहीं आ रहा था.
फिर मित्रों के कहने पर कि बाहर किसी स्पैशलिस्ट को दिखाया जाए. अत: मुंबई दिखाने का तय हुआ. प्रियांश अभी 6-7 माह का ही था. मुझे छोटे बच्चे के साथ परेशानी होगी, इसलिए वरुण के एक मित्र अखिलेशजी और मांजी दोनों ही साथ मुंबई आए. मेरे लिए आदेश था कि तुम चिंता न करो. फोन से सूचना देते रहेंगे. उन्हें गए 2-3 दिन हो गए, मगर कोई खबर नहीं.
मैं रोज पूछती कि क्या कहा डाक्टर ने तो मांजी का यही जवाब होता कि अभी डाक्टर टैस्ट कर रहे हैं, रिपोर्ट नहीं आई है. आने पर पता चलेगा.
5वें दिन मांजी, अखिलेशजी और वरुण तीनों ही बिना किसी सूचना के घर आ गए. मैं तो अचंभित ही रह गई.
‘‘यह क्या मांजी? न कोई फोन न खबर... आप तो इलाज के लिए गए थे न? क्या कहा डाक्टर ने? सब तो ठीक है?’’
मगर सभी एकदम खामोश थे.
‘‘कोई कुछ बताता क्यों नहीं?’’
कोई क्या कहता. सभी सदमे में जो थे.
वरुण का चेहरा भी उतरा था. मांजी को तो मानो किसी ने निचोड़ दिया हो. सब भी था. वह मां भला क्या जवाब देती जिस ने पति के न रहने पर जाने कितनी जिल्लतों को सह कर अपने बेटे को इस उम्मीद पर बड़ा किया कि उस का हंसताखेलता परिवार देख सके. जीवन के अंतिम क्षणों में उस की अर्थी को कंधा देने वाला कोई है तो मौत से भी बेपरवाही थी. मगर आज उसी मां के इकलौते बेटे को डाक्टर ने चंद सांसों की मोहलत दे कर भेजा है.
जी हां, डाक्टर ने बताया कि वरुण को लंग्स कैंसर है जो अब लाइलाज हो चुका है. दुनिया का कोई डाक्टर अब कुछ नहीं कर सकता. उन के अनुसार 4-5 महीने जितने भी निकल जाए बहुत हैं.
जो घर कभी प्रियांश की किलकारियों से गूंजता था वहां अब वरुण के दर्द की कराहें और एक बेबस मां की आंहें ही बस सुनाई देती थीं. मैं उन दोनों के बीच ऐसी पिस कर रह गई थी कि खुल कर रो भी नहीं पाती थी. घर का जब मजबूत खंभा भरभरा कर गिरने लगे तो कोई तो हो जो अंतिम पलों तक उसे इस उम्मीद पर टिकाए रखे कि शायद कोई चमत्कार हो जाए.
घर में अब हर समय मायूसी छाई रहती. किसी काम में मन न लगता, जिंदगी के दीपक की लौ डूबती सी लगती. डाक्टरों ने अपने हाथ खड़े कर दिए थे. फिर भी ममता की डोर और
7 फेरों के अटूट बंधन में अब भी आशा का एक नन्हा दीपक टिमटिमा रहा था.
मगर धर्म और आस्था नाम की तो कोई चीज है नहीं दुनिया में, फिर भी जब व्यक्ति संसार से हताश हो जाता है तो इसी आखिरी छलावे के पीछे भागता है. यों तो कैंसर नाम ही इतना घातक है कि मरीज उस के सदमे से ही अपनी जीजिविषा खो बैठता है.
डाक्टर भी अपनी जगह गलत नहीं थे, मगर बावरा मन भला कैसे मानता? अत: जो जहां भी रोशनी की किरण दिखाता हम वरुण को ले कर दौड़ पड़ते. प्रेम और ममता के आगे विज्ञान का ज्ञान भी धरा रह जाता है.
हम सभी जानते थे कि वरुण एक लाइलाज बीमारी से जूझ रहे हैं. मगर फिर भी कीमो थेरैपी कराई कि कहीं कोई चमत्कार हो जाए, पैसा पानी की तरह बह रहा था. व्यापार तो लगभग ठप्प ही समझो. इधर वरुण की भागमभाग में प्रियांश की अनदेखी होने से वह भी बीमार हो गया. सच जिंदगी हर तरफ से इम्तिहान ले रही थी. हम वरुण को 6 माह से ज्यादा न जिला पाए.
मांजी तो एक जिंदा लाश बन कर रह गईं. अगर प्रियांश न होता हमारे पास, तो शायद हम दोनों भी उस दिन ही मर गई होतीं. मगर जिंदा थे, इसलिए आगे की चिंता सताने लगी. व्यापार खत्म हो चुका था, घर बैंक के लोन से बना था. अभी तो मात्र एकचौथाई किश्तें ही भर पाए थे और अब यह क्रम जारी रहे, उस की कोई संभावना नहीं थी. अत: मकान भी हाथ से जाता रहा.
किसी ने सच कहा है बुरे वक्त पर ही अपनेपराए इनसानों की परख होती है. इस मुश्किल घड़ी में दोनों बहनों ने अपने अनुसार बहुत मदद की, मगर अमृत भैया कुछ मुंह चुराने लगे हैं, यह खयाल एक पल को मन में आया अवश्य था, मगर अचानक परेशानियों के हमले से इतनी विचलित थी कि इस बारे में गंभीरता से सोच सकूं, इतना समय ही नहीं मिला. जबकि मां अभी जिंदा थीं. किंतु शायद मां की हुकूमत नहीं रह गई थी अब घर में, भुक्तभोगी थीं.
अत: समझ पा रही थी कि हमारे समाज में आज भी वैधव्य के आते औरत का रुतबा कम हो जाता है. बचपन वाली वे मां कहीं खो गई थीं, जो मेरे जरा से रोने पर दोनों बहनों कृष्णा व मृदुला और अमृत भैया से उन की चीजें भी मुझे दिला दिया करती थीं.
मन में कहीं कुछ कसकता था तो वह यह कि वरुण के अभाव में प्रियांश को वह खुशी, वह सुख नहीं दे पाई जिस का कि वह हकदार था. हालांकि बहनें उस के खिलौनों और कपड़ों का पूरापूरा ध्यान रखतीं, मगर यह तो स्नेहा था उन का. हक तो फिर भी नहीं. हालात कुछ ऐसे बने कि गृहस्थी, किराए के एक छोटे से मकान में सिमट कर रह गई. हालात इजाजत न देते कि घर से बाहर जा कर कोई नौकरी करती, क्योंकि मांजी और प्रियांश की देखभाल ज्यादा जरूरी थी.
सामने एक तरफ दिशाहीन जीवन था, तो दूसरी ओर प्रियांश का अंधकारमय भविष्य. क्या होगा? चिंता में सीढि़यों पर बैठी थी कि अचानक कृष्णा दीदी को करीब पा कर चौंक गई, ‘‘अरे दीदी आप? कब आईं? पता ही नहीं चला.’’
‘‘अभी आई हूं. तुम शायद किसी सोच में खोई थीं.’’
‘‘हां दीदी, यह बेल देख रही थी, कितने जतन से इसे लगाया था. रोज सींचती थी. देखो कैसे अब फूलों से लद गई है. मन को बहुत सुकून देती यह. मैं ने इसे उस पेड़ के सहारे ऊपर चढ़ा दिया था... देखो न कल रात तेज आंधी से वह पेड़ धराशायी हो गया. अपना आश्रय छिनते ही देखो कैसे जमीन पर आ गिरी है, एकदम निर्जीव... असहाय बिलकुल हमारी तरह... एक आलंबन के बिना हमारी जिंदगी भी तो ऐसी ही हो कर रह गई है... बिलकुल असहाय... है न दीदी?’’
‘‘चल उठ... बहुत सोचने लगी है... ऐसे ही सोचती रही तो प्रियांश की परवरिश कैसे करेगी? यह देख (दीदी ने बेल को फिर से कपड़े सुखाने वाले तार पर लपेटते हुए कहा). ले मिल गया सहारा. अब फिर से हरी हो जाएगी यह बेल.’’
‘‘दीदी, काश जिंदगी भी इतनी ही आसान हो सकती...’’
‘‘यदि कोशिश की जाए तो कुछ मुश्किलें तो अब भी कम हो सकती हैं वृंदा...’’ दीदी की आवाज अचानक गंभीर हो गई.
‘‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी दीदी?’’
‘‘वृंदा, अमृत भैया की बेरुखी किसी से छिपी नहीं... आज संकट की इस घड़ी में उन्हें जहां सब से आगे होना चाहिए था, वहीं वे मुंह चुराते घूम रहे हैं. हैरत की बात तो यह है कि
मां भी खामोश हैं... क्या मजबूरी है उन की, मैं नहीं जानती?’’
‘‘दीदी, एक तो बुढ़ापा ऊपर से बिना पति के भला इस से बढ़ कर मजबूरी और क्या हो सकती है. आखिर उन का बुढ़ापा तो भैया की पनाह में ही कटना है न?’’
‘‘इस का मतलब बेटी के एहसासों की कोई कीमत नहीं... आखिर उस के प्रति भी कुछ जिम्मेदारी बनती है उन की. घर उन का है...
पापा की पैंशन है... कौन सा वे भैया के सहारे जी रही हैं?’’
‘‘दीदी, मां समाज को तो नहीं बदल सकतीं न... जहां आज भी बेटियों की अपेक्षा बेटों के साथ रहने में ही मातापिता का सम्मान कायम माना जाता है.’’
‘‘मेरी छोटी बहन कितनी समझदार हो गई है. चल छोड़ ये सब वृंदा... मैं ने, मृदुला ने और तुम्हारे दोनों जीजाजी ने यह तय किया है कि वे भैया से बात करेंगे. आज समय बदल चुका है. कानून ने भी बेटियों को पिता की पूंजी में बराबर का हक देने की बात को स्वीकार किया है.’’
‘‘पगली, ये रिश्तेनाते, सगेसंबंध होते किसलिए हैं? वक्तबेवक्त सहारे के लिए ही न? जो बुरे वक्त में काम न आए वह भला कैसे अपना वृंदा?’’
आखिर सब ने मिल कर भैया को समझाने का प्रयास किया कि संपत्ति में से वृंदा को कुछ हिस्सा दे दिया जाए, कृष्णा और मृदुला दीदी ने यहां तक कह दिया कि वे अपने लिए कुछ नहीं मांग रहीं, कहे तो लिख कर दे दें. मगर आज वृंदा पर जो विपदा आई है, उस में तुम्हें खुद आगे हो कर यह कदम उठाना था.
मगर भैया नहीं चाहते थे कि पिताजी की जायदाद में से मेरा भी हिस्सा कर दिया जाए. तभी किसी ने उन्हें अकेले में ले जा कर सलाह दी, ‘‘खैर मनाओ, बाकी दोनों बहनें कुछ नहीं मांग रहीं. मान जा वरना कोर्ट की बारी आई तो हो सकता है 4 हिस्से बराबर के करने पड़ें.’’ तब बुझे मन से भैया को यह निर्णय स्वीकार करना पड़ा. भाभी पर तो मानो वज्रपात हो गया.
खैर, पिताजी के मकान का एक हिस्सा मेरे नाम करा दिया गया. मैं विवश न चाहते हुए भी इस बेरुखी भरे माहौल में अपने स्वाभिमान को गिरवी रख मायके आ गई, इस उम्मीद के साथ कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा.
आखिर खून का रिश्ता है... पानी में लकड़ी पड़ भी गई तो पानी भला कहां दूर होने वाला, कुछ नहीं तो अपनों के करीब रहूंगी. मगर यह मेरी भूल थी. यहां तो रिश्तों की परिभाषा ही बदल चुकी थी. कोई अपना न रहा था.
दौलत के हिस्से ने घर के बंटवारे के साथ ही दिल के बीच भी दीवार खींच दी थी. मेरे स्वाभिमान को यह जरा भी गंवारा न था. मगर लाचार थी. कोई और चारा भी तो न था, वहीं बच्चों को ट्यूशन पढ़ानी शुरू कर दी. पासपड़ोस के लोगों ने इस में मेरी मदद की. बेगानों की मदद से जिंदगी को पटरी पर लाने का प्रयास कर रही थी.
भाभी खुद कभी न बोलतीं. जितना मैं बोलती उस का भी बड़ी बेरुखी से जवाब देतीं. भैया तो मानो आज भी नाराज हैं. मां जो अकसर शाम को लौन में कुरसी डाल कर बैठती थीं, मेरे जाने के बाद कम ही बैठतीं.
शायद बहूबेटी के झंझटों से मुक्त रहना चाहती थीं. मुझे दुख नहीं, बल्कि तरस आता मां पर, लगता मेरे कारण बंट कर रह गई हैं वे
2 आवाजों के बीच. भैया के बच्चे मोंटी और पारुल बड़े थे. अपने और पराए के भेद को जानने लगे थे. अत: कभी मेरी तरफ खेलने न आते. किंतु इन सब चालों से अनजान प्रियांश जब भी उन्हें खेलते देखता उन के साथ हो लेता.
एक दिन जाने कैसे प्रियांश बच्चों के कमरे से खेलतेखेलते एक खिलौना उठा लाया. आखिर बच्चा ही तो था. मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा रही थी कि भाभी के प्रेम वचन सुनाई दिए, ‘‘घर पर तो हमारे अधिकार जमा ही लिया अब क्या धीरेधीरे घर का सारा सामान भी हड़पने का इरादा है?’’
मैं ने स्थिति को समझते हुए बीच में बोलना उचित नहीं समझा. आखिर बच्चा ही सही गलती प्रियांश की ही थी. फिर आए दिन इस तरह की कोई घटना होने लगी. समय के साथ यह एहसास भी हुआ कि यह सब अनायास नहीं, बल्कि सोचीसमझी साजिश है.
एक दिन शाम के समय भाभी लगभग चीखते हुए आ पहुंचीं, ‘‘तुम यहां कमाई में लगी रहो और तुम्हारा कुलदीपक हमारे यहां बैठा नुकसान करता रहे... ये सब नहीं चलेगा... देखो कितना सुंदर फ्लौवरपौट था. तोड़ दिया न इस उज्जड ने... कितना महंगा था, अब मैं और बरदाश्त नहीं कर सकती.’’
मैं कुछ कहती उस से पहले ही मोंटी बोल पड़ा, ‘‘मगर मम्मी यह तो कल पारूल से टूटा था.’’
‘‘चुप रह शैतान... तुझे पता भी है कुछ?’’
अपना दांव बिखरते देख भाभी बड़बड़ाती हुई अंदर चली गईं. आखिर मोंटी बच्चा ही तो था. अत: बोल गया बच्चे की बोली. चाहती तो बहुत कुछ कह सकती थी, मगर वक्त ने मेरे मुंह पर मजबूरी और एहसानों का ताला जो जड़ दिया था.
खैर, मुझे भाभी के इरादे अच्छी तरह समझ आ गए. रहना तो मैं खुद भी नहीं चाहती थी ऐसे किसी का कृपापात्र बन कर, मगर जीजीजीजाजी ने जो मेरे खातिर इन लोगों से बुराई मोल ली थी उस का मान तो रखना ही था.
अब मैं संभल गई. बच्चों को पढ़ाते वक्त प्रियांश को भी अपने साथ ले कर बैठती. किसी न किसी तरह उसे उलझाए रखती ताकि फिर न झंझट को न्योता दे आए.
मगर बच्चे की चपलता को भला कौन बांध सका है. इधर भाभी जोकि फिराक में ही बैठी थीं. पिछले 2 दिनों से मांजी की तबीयत खराब थी. इतना तेज बुखार कि मुझे ट्यूशन की भी छुट्टी करनी पड़ी. मैं उन्हीं की देखभाल में लगी थी कि जाने कब प्रियांश मेरी कैद से निकल भाभी के घर पहुंच गया.
उस का ध्यान तब आया जब उस के जोरजोर से रोने की आवाजें आने लगीं. किसी अनिष्ट की आशंका से मैं जल्द ही उस ओर भागी. मेरा बच्चा पीठ और पैरों को हाथ लगालगा रो रहा था. भाभी ने न जाने किस अपराध के लिए उसे स्केल से इस कदर पीटा कि निशान उभर आए थे पीठ और पैरों पर. कभी पीठ को हाथ लगा कर तड़पता तो कभी पैरों को पकड़ कर.
‘‘क्या कोई इतना भी निष्ठुर हो सकता है?’’ गोदी में लिटा कर उसे हलकेहलके थपकियां देने के अलावा मैं कर भी क्या सकती थी. वह सो गया. उस का मासूम पीड़ा से भरा चेहरा मेरे सामने था.
मस्तिष्क में अनंत सवालों के बादल घुमड़ रहे थे कि कानून की मोटीमोटी किताबों में जाने कितनी धाराएं बनेंगी और बदलेंगी. बेटी को बाप की वसीयत में बराबर की हिस्सेदारी मिली यह खबर अखबारों की सुर्खियों में ही भली लगती हैं. वास्तविकता तो यही है जो उस के साथ घट रही है.
क्या वास्तव में बाप की वसीयत से बेटी का हिस्सा निकालना इतना तकलीफदेह है? इस हकीकत को नकारा नहीं जा सकता कि अगर वह हिस्सा लेती है तो उसे प्यारमुहब्बत की दौलत को खोना होगा, क्योंकि आज बाबुल के मन का आंगन इतना संकुचित हो चुका है कि वहां प्यार या पूंजी में से कोई एक ही समा सकता है. चाहे वह एक बेटी के द्वारा अपनी परेशानियों में उठाया गया कदम ही क्यों न हो?
आज समाज और कानून के भय से उस ने यह हिस्सा भी पा लिया तो क्या? उस के लिए उसे अपनों के अपनत्व की आहुति देनी पड़ेगी, यह उस ने कभी सोचा न था. ऐसा क्यों है कि जिस बेटी को बचपन में बड़े नाजों से पाला जाता है उसी बेटी के ब्याह होते ही उस के प्रति न केवल लोगों का बल्कि उस के जन्मदाताओं के नजरिए में भी परिवर्तन आ जाता है. जब बेटियां अपने मायके की खुशहाली की खातिर अपना तनमनधन सब समर्पित कर सकती हैं तो अपनी मुसीबतों के पलों में उन की ओर उम्मीद भरी आंखों से निहारने पर यह तिरस्कार क्यों?
वसीयत : लेखक डा. लता अग्रवाल
Reviewed by कहानीकार
on
September 12, 2017
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