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परहेज़



“कैसा ज़माना आ गया है, नाती-पोतों के सामने बुजुर्गों को चुप रह जाना पड़ता है. एक हमारा ज़माना था. जब बड़े बोलते थे और बच्चे सुनते थे. बड़ों का सम्मान किया जाता था, उनके खाने-पीने का पूरा ख़याल रखा जाता था. अब तो बच्चे ख़ुद कमाते हैं और ख़ुद ही खाते हैं. बीमारी के नाम पर हमें रुखे-सूखे भोजन देकर सोचते हैं अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं.”
मोहनलाल लगातार आवाज़ दिए जा रहे थे. “अरे ओ… बहू, सुनती है…, देख तो बारह का घंटा बज गया. लेकिन अभी तक मेरे पेट में अन्न का एक दाना तक नहीं गया.” पर कोई प्रत्युत्तर न पाकर खीझ जाते. अगली बार अपनी आवाज़ और बुलंद करके चिल्लाने लगते.
पर बहू कहां मौजूद थी उनकी चीख-पुकार सुनने के लिए? वह तो सुबह ही अस्पताल चली गयी थी अपनी बहू को लेकर. जाते व़क़्त वह बोलकर भी गयी थी कि “बहू के पेट में दर्द उठ रहा है, इसलिए मैं अस्पताल जा रही हूं. अगर आपको किसी चीज़ की आवश्यकता हो तो नेहा को आवाज़ दे दीजिएगा. वैसे मैंने उसे बता दिया है कि अस्पताल से आने में मुझे देर हो जाएगी. इसलिए बाबूजी को खाना समय पर दे देना.” पर मोहनलाल की उम्र के साथ-साथ शायद याददाश्त भी बूढ़ी हो गयी थी. और वे यह भी भूल गए थे कि सुबह का नाश्ता बहू उनको खिलाकर गयी थी.
उनकी लगातार की गुहार से नेहा हाथ में खाने की थाली लेकर आ गयी और बोली, “माफ़ करना दादाजी, आपके लिए खाना लाने में देर हो गयी.” मोहनलाल खांसते हुए बोले, “नहीं बेटी कोई बात नहीं, जब अपनों ने ही परवाह करना छोड़ दिया तो किसी और से भला मैं क्या उम्मीद करूं.” नेहा बोली, “अच्छा दादाजी तो मैं कोई और हो गयी.”
थाली में दाल, रोटी, सब्ज़ी और सलाद देखकर वे बोले, “क्या बेटी, तू भी वही रूखे-सूखे भोजन ले आई?” नेहा बोली, “दादाजी आपकी सेहत के लिए यही अच्छा है. चाचीजी बोलकर गयी थीं कि दादाजी को मीठी चीज़ें, आलू और चावल मत देना.”
मोहनलाल बोले, “अरे वो ख़ुद मुझको स्वादहीन खाना खिला-खिलाकर तो मार ही रही है, अब तुझे भी पाठ पढ़ा गयी कि दादाजी की सेहत के लिए क्या अच्छा है-क्या बुरा. पर वह भी क्या करे. जब से मेरा पोता अखिल डॉक्टर बना है, तब से अपनी मां को भी डॉक्टर बना दिया. हर चीज़ की नाप-तोल करता है. मधुमेह की बीमारी है. अरे वर्जनाओं का भी अन्त होता है.”
नेहा बोली, “दादाजी-अखिल भैया आपका कितना ध्यान रखते हैं. आपके स्वास्थ्य के प्रति कितना सचेत रहते हैं. अगर आपकी पसंद की चीज़ें आपको खाने के लिए मिलने लगें तो क्या आप स्वस्थ रह पाएंगे?”
मोहनलाल बोले, “अच्छा होगा, अगर बिस्तर पर ही बीमार पड़ा रहूं. कोई मरणासन्न अवस्था में पड़ा हुआ व्यक्ति भी इतना न तड़पता होगा, जितना मैं चलने-फिरने की स्थिति में रहकर भी तड़पता हूं. टहलाने के नाम पर अखिल रोज़ सुबह-सवेरे उठा देता है और तब तक चलाता रहता है. जब तक कि थक कर चुर न हो जाऊं. कहता है वॉक कीजिए, वॉक आपकी सेहत के लिए अच्छा रहेगा. मन तो होता है बोल दूं, अंग्रेजी किसी और के सामने झाड़ा करो, पर लिहाज़ कर जाता हूं. कैसा ज़माना आ गया है, नाती-पोतों के सामने बुजुर्गों को चुप रह जाना पड़ता है. एक हमारा ज़माना था. जब बड़े बोलते थे और बच्चे सुनते थे. बड़ों का सम्मान किया जाता था, उनके खाने-पीने का पूरा ख़याल रखा जाता था. अब तो बच्चे ख़ुद कमाते हैं और ख़ुद ही खाते हैं. बीमारी के नाम पर हमें रुखे-सूखे भोजन देकर सोचते हैं अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं.” दादाजी का घुमा-फिरा कर फिर से स्वाद पर आकर अटक जाने वाली बात सुनकर नेहा विचार मग्न हो गयी. वह दादाजी से इस विषय में और भी बातें करना चाहती थी, पर चुप रह गयी. वह जानती थी बात करके कोई फ़ायदा नहीं. दादाजी समझनेवालों में से नहीं हैं. थाली उठाते हुए वह बोली, “अच्छा दादाजी अब चलती हूं. किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बता दीजिए.”
नेहा थाली उठाकर चली गयी, तो मोहनलाल का मन फिर स्वाद रूपी सरिता में गोते खाने लगा. वह सोचने लगे, आज भोजन के लिए मुझे इंतज़ार करना पड़ता है, और जब इंतज़ार की घड़ियां समाप्त हो जाती हैं तो भोजन के नाम पर गाय- भैसों जैसा घास-फूस परोस दिया जाता है. कभी ऐसा भी समय था, जब भोजन मेरा इंतज़ार करता था. वो भी क्या ज़माना था. चौपाल लगती तो शाम रात में कब बदल जाती थी, पता ही नहीं चलता था. मित्रों का जो जमघट लगता तो छटते-छटते भी काफ़ी रात गुज़र जाती थी. कभी रामायण, तो कभी बिरहा, तो कभी शतरंज और इस रसपूर्ण माहौल को मां द्वारा शुद्ध घी से बनाए हुए व्यंजन और भी सरस बना देते. थाली की थाली कचौरियां, समोसे, रबड़ी और जलेबियां उड़ाई जातीं.
भोजन का समय जब सरकने लगता तो मां बुलावे पर बुलावा भेजती. जब वे घर पहुंचते तो मां रसोई में ही झपकी लेती मिल जाती. वह मां को कितनी बार समझा चुके थे, “मां मेरे लिए परेशान मत हुआ करो. आपको इतनी रात तक जागने की भला क्या आवश्यकता है? आप रसोई में मेरा इंतज़ार करती रहती हैं, इसलिए भोजन कर लेता हूं. वर्ना नाश्ता ही इतना भिजवा देती हैं कि भोजन करने ज़रा भी मन नहीं होता.” तो मां कहती, “तू भोजन किए बगैर न सोए, इसलिए तो जागती रहती हूं. अरे नाश्ता तो नाश्ता होता है, भोजन से भला उसका क्या मुक़ाबला.”
मोहनलाल मां की ममत्व से भरी स्नेहिल बातें सुनकर, मां के सामने ही आलथी-पालथी मारकर बैठ जाते. मां का प्रेम उनकी भूख को फिर से जागृत कर देता और वे भोजनयुक्त थाली को धुली हुई थाली बनाकर ही उठते.
मां इस ज़िम्मेदारी से तभी मुक्त हो पाई थीं, जब घर में बहू ने प्रवेश किया था. बहू भी अपनी इस ज़िम्मेदारी से कभी विचलित न हुई. पर मोहनलाल अब चौपाल से थोड़ा-बहुत ज़रूर विचलित होने लगे थे. भामिनी का इंतज़ार करता चेहरा उनकी आंखों के सामने घूम जाता. जब तक वे घर नहीं आ जाते थे, भामिनी भूखी-प्यासी रहकर उनका इंतज़ार करती रहती थी. कितनी बार उन्होंने समझाया था कि वह उनके लिए भूखी न रहा करे. वे तो चौपाल में अपना कोटा पूरा कर लेते हैं.

मां सुन जाती तो कहती, “बहू अपना पत्नी धर्म निभा रही है. उसे मत रोका कर बेटा.” पर क्या वह स़िर्फ पत्नी धर्म ही निभाती थी. पत्नी से अधिक उसने बहू धर्म को प्राथमिकता दी थी. भोजन में वह एक मीठा पदार्थ ज़रूर रखती. जब वे पूछते, “रोज़-रोज़ मीठी चीज़ें क्या बनाती रहती हो? मैं तो ऊब गया हूं ये मिठाइयां खाकर.” तो भामिनी बोलती, “मिठाइयां आपके लिए थोड़े ही बनाती हूं. मां-बाबूजी अब बूढ़े हो गए हैं और उम्र के इस पड़ाव पर मीठी चीज़ों के प्रति आदमी का झुकाव ज़्यादा हो जाता है.” यह सुनकर वह हंसने लगते. पर आज भामिनी की बात उन्हें कितनी सही प्रतीत होती हैं. बाहर बाजे-गाजे की आवाज़ सुनकर उनकी विचार श्रृंखला भंग हो गयी. उन्होंने देखा, बहू अंदर प्रवेश कर रही है. उसकी गोद में नवजात शिशु देखकर मोहनलाल भी प्रफुल्लित हो उठे.
सभी ने उनके पैर छुए. बहू बोली, “बाबूजी देखिए, आज आपके घर मं पड़पोता हुआ है. लीजिए लड्डू खाइए.” बहू ने जैसे ही लड्डूवाला हाथ उनकी तरफ़ बढ़ाया, डॉक्टर पोते ने मां का हाथ पकड़ लिया. और बोला, “मां, आप ये क्या रही हैं? आपको तो पता है, दादाजी को हाई डायबिटीज़ है.” बहू का हाथ रुक गया. तभी पोते की बहू बोली, “अरे जाने भी दीजिए, एक दिन खाने से कुछ नहीं होता.” मोहनलाल को आस बंधी-अब शायद लड्डू मिल ही जाए. पर पोता अपने डॉक्टरी पेशे पर उतर आया था, वह बोला, “बिल्कुल नहीं, दादाजी को मिठाई का एक टुकड़ा भी नहीं मिलना चाहिए. ये तो कुछ समझते नहीं हैं. कम से कम तुम लोगों को तो समझना चाहिए.” मोहनलाल को अपमान-सा महसूस हुआ. वे बोले, “हां, हां मैं तो मूर्ख हूं. बुद्धिमान तो तुम लोग ही हो. मिठाइयां तुम लोगों को ही मुबारक़ हों. मुझे तुम लोगों की नियत अच्छी तरह से मालूम है. तुम लोग मुझे बिना खाने के ही मार डालना चाहते हो.” पोते ने समझाने के अंदाज़ में अपना मुंह खोला ही था कि मोहनलाल जी दोबारा बोले, “मुझे कुछ नहीं सुनना, अपनी नसीहत अपने पास ही रखो.” उनकी बड़बड़ाहट से वे लोग अच्छी तरह से परिचित थे. वे बकते रहे और सब लोग अंदर चले गए. जब उनकी बड़बड़ाहट काफ़ी देर तक न रुकी तो अखिल के पापा बाहर आए और बोले. “बाबूजी, आप सचमुच में सठिया गए हैं. आपको कम से कम अपनी बीमारी का तो ध्यान रखना चाहिए. जब आपका शुगर लेवल सामान्य स्तर पर आ जाएगा, तब आपके जी में जो आए, खाइएगा.” मोहनलाल ग़ुस्से से बोले, “शायद तुम्हारे डॉक्टर बेटे की नज़र में वो दिन कभी न आए.”
तभी बहू हाथ में भोजन की थाली लेकर आ गयी और बोली, “बाबूजी भोजन कर लीजिए.”
मोहनलाल बोले, “नहीं, मुझे भूख नहीं है.” बहू आग्रह करती रही, पर मोहनलाल अपनी ज़िद पर अड़े रहे. आख़िर बहू को थाली वैसे ही वापस ले जानी पड़ी, लेकिन रात का प्रथम पहर बीतते-बीतते मोहनलाल के पेट में चूहों ने कबड्डी खेलना शुरू कर दिया और वे उठ बैठे. उन्होंने नज़रें इधर-उधर दौड़ाईं. कोई आहट न पाकर वे रसोई की तरफ़ बढ़ गए. उनकी नज़र जैसे ही अलमारी पर पड़ी, सामने ही मिठाई का डब्बा नज़र आ गया. उनके मुंह में पानी भर आया. जिस लड्डू के लिए वे अपने आपको इतना अपमानित महसूस कर रहे थे, वही लड्डू जब सामने नज़र आए तो सारे अपमान धुएं की तरह कहीं दूर बादलों में खो गए. स्वादेन्द्रि ने ज्ञानेन्द्रि पर कब्ज़ा कर लिया और वे डब्बे में से लड्डू निकाल-निकाल कर गले के नीचे उतारने लगे. जब उनका पेट गले तक भर आया तो पैर अपने आप चारपाई की तरफ़ उठ गए.
सुबह होते-होते उनको चक्कर-पर-चक्कर आ रहे थे. जी मचला रहा था और वे अर्धबेहोशी-सी हालत में पहुंच गए. जब यह बात अखिल को पता चली तो वह दौड़ा हुआ दादाजी के पास आ गया. दादाजी की स्थिति देखकर वह समझ गया कि आज दादाजी ने ज़रूर कुछ ऊटपटांग चीज़ें खाई हैं. इन्सुलिन की सुइयां और दवाइयां दादाजी के जिस्म में उतारी जाने लगीं. जब भी उनकी आंख खुलती, वे अखिल को अपने पास पाते. उसके चेहरे पर बेचैनी और थकावट देखकर वे भी बेचैन हो उठे. अखिल की लगातार कोशिश से दादाजी की तबीयत में सुधार होने लगा.
अखिल के लिए बुलावे पर बुलावा आ रहा था. पर वह दादाजी के पास से हिला तक नहीं. आख़िर मोहनलाल बोले, “अब तुम अपने काम पर जाओ बेटा. मेरी तबीयत अब बिल्कुल ठीक है. तुम्हारे वहां भी कितने अह्म काम करने के लिए पड़े होंगे.” अखिल बोला, “पर आप से ज़्यादा नहीं.” तभी नेहा ने अंदर प्रवेश किया, उसके हाथ में मिठाई का डब्बा था. वह बोली, “लीजिए दादाजी मिठाई खाइए. आज में देखती हूं कि आपको कौन रोकता है.”
मोहनलाल बोले, “नहीं बेटी अब मुझे इन चीज़ों की कोई ज़रूरत नहीं.” प्रतिकूल पदार्थ के प्रति नकारात्मक भाव और पोते को प्यार से निहारती आंखें देखकर नेहा समझ गयी कि दादाजी ने आज से परहेज़ करना शुरू कर दिया है.

– प्रमिला शर्मा

परहेज़ परहेज़ Reviewed by कहानीकार on September 21, 2017 Rating: 5

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