वे नौ दिन: लेखक प्रतीक कुमार
शाम 6 बजे का समय था, बाहर बारिश हो रही थी और उन्हें देखते-देखते मैं पिछले 2-3 महीने वापस याद करने लगा।
आज मम्मी-पापा को बिजनेस ट्रिप पर गए नौ दिन हो चुके थे और मेरे अकेलेपन को भी। बाहर बच्चे बारिश में खेल रहे थे, उनको देखकर समय व्यतीत कर रहा था कि अचानक मोबाइल में मैसेज रिंग बजी, मोबाइल उठा कर देखा तो किसी अनजान लड़की का मैसेज था, कुछ देर सोचने के बाद मैंने भी उसके हैलो का जवाब दिया।
"और कैसे हो?" उधर से मैसेज आया।
"मैं ठीक हूँ, पर आप कौन हैं?" मैंने पूछा।
"हूँ कोई जो आपको और आपकी अच्छाई को दिल और दिमाग में जगह दे चुकी हूँ।" उसका जवाब था।
"मैं ठीक हूँ, पर आप कौन हैं?" मैंने पूछा।
"हूँ कोई जो आपको और आपकी अच्छाई को दिल और दिमाग में जगह दे चुकी हूँ।" उसका जवाब था।
ये सब पढ़कर मेरी धड़कनें तेज हो गई और दिमाग सवाल करने लगा।
"आई थिंक यू हेड मैसेज्ड मी बय मिस्टेक, बाय" मैंने लिखा।
"प्लीज-प्लीज, ऐसा मत करो, मैंने तुम्हें ही मैसेज करना चाहा था। 100-150 प्रोफाइल चेक कर-करके तुम तक पहुँची हूँ।" उसका जवाब था।
"प्लीज-प्लीज, ऐसा मत करो, मैंने तुम्हें ही मैसेज करना चाहा था। 100-150 प्रोफाइल चेक कर-करके तुम तक पहुँची हूँ।" उसका जवाब था।
"ट्रिन-ट्रिन, ट्रिन-ट्रिन" शायद लैंडलाइन पर माँ का फोन था, "बाय, बाद में बात करता हूँ" मैंने उसे ये लिखना ठीक समझा।
मम्मी से बात करके खाना खाया और फिर बेड पर लेट गया।और आज जो उससे बातें हुईं वो ही सोचते-सोचते नींद आ गई।
मम्मी से बात करके खाना खाया और फिर बेड पर लेट गया।और आज जो उससे बातें हुईं वो ही सोचते-सोचते नींद आ गई।
सुबह मोहिनी दीदी(कामवाली बाई) के खिड़की से पर्दा हटाने पर सूरज की किरणों ने आँखों पर तीखा हमला करके जगाया। मोबाईल में देखा तो 08:25 हुए थे। फेसबुक पर उसी लड़की के तीन मैसेज थे, फेसबुक खोल के देखा तो कल शाम का बाय, रात का गुड नाइट और सुबह का गुड मॉर्निंग मैसेज था। मेरी उँगलियों ने भी गुड मॉर्निंग लिख कर भेज दिया।
"उठ गए लवली बॉय" कुछ ही पलों में उसका जवाब आया।
"हाँ और आप?" मेरी उँगलियों ने तेजी दिखाई।
"मैं भी, पर मुझे ये आप करके मत बोलो। मुझे पता है तुम बहुत अच्छे हो, पर ये नहीं चलेगा।" उसने लिखा।
"आपको क्या पता है मैं कितना अच्छा और बूरा हूँ, आप ऐसा क्या जानती है मेरे बारे में।" मैंने लिखा।
"बताऊँगी, पर तुमसे मिलकर," उसका जवाब आया।
"आप मुझे नहीं जानती और मैं आपको, हम नहीं मिलेंगे।"
"तो जान लेते हैं ना, क्या हर्ज है?" उसने लिखा।
"हाँ और आप?" मेरी उँगलियों ने तेजी दिखाई।
"मैं भी, पर मुझे ये आप करके मत बोलो। मुझे पता है तुम बहुत अच्छे हो, पर ये नहीं चलेगा।" उसने लिखा।
"आपको क्या पता है मैं कितना अच्छा और बूरा हूँ, आप ऐसा क्या जानती है मेरे बारे में।" मैंने लिखा।
"बताऊँगी, पर तुमसे मिलकर," उसका जवाब आया।
"आप मुझे नहीं जानती और मैं आपको, हम नहीं मिलेंगे।"
"तो जान लेते हैं ना, क्या हर्ज है?" उसने लिखा।
और अगले 3-4 सप्ताह तक मैं मोबाइल से चिपक कर ही बैठा रहा। हमने एक-दूसरे से अपने बारे में, अपनी पसंद नापसंद के बारे में जाना। और फिर एक दिन शाम को उसकी कई रिक्वेस्ट के बाद में उससे रेस्टोरेंट में मिलने पहुँचा।
हमेशा की तरह मैं समय का पाबंद दस मिनट पहले पहुँच चुका था और लगभग 7-8 मिनट बाद वो भी आ पहुँची। उसे आज पहली बार इतने करीब से देखा और देखता ही रह गया। उसके काले-लम्बे खुले बाल, गोल आँखें, होठों पर छोटी-सी मुस्कान रखे, अपने गेरूएँ रंग पर सफेद सलवार-सूट पहने, वो परी सी मेरे सामने खड़ी थी। वो ठीक वैसी ही थी जैसा मैंने अपने जीवनसाथी को एक-दो बार अपनी कल्पनाओं में उकेरा था, लग रहा था मानो ये सब जो हो रहा है, भगवान ने ये दृश्य खुद लिखा है मेरे लिए।
"अब बैठोगे भी या ऐसे ही घूरते रहोगे" उसने हँस कर कहा।
मैं भी अब थोड़ा शर्मा कर, गर्दन नीचे कर के बैठ गया था।
उसने वेटर को दो काफी के लिए बोला और मेरी तरफ मुड़ते हुए बोली,"कुछ बोलोगे भी या ऐसे ही लड़कियों की तरह शर्माते रहोगे।"
"आपका नाम क्या है?" मेरे मुँह से निकला।
"क्या, फेसबुक पर नहीं देखा?" उसने आँखें फैलाते हुए पूछा।
मैं हड़बड़ाया और बात सम्भालते हुए बोला,"देखा है, पर सोचा आपसे ही पूछ लूँ।"
वो मेरी चालाकी समझ चुकी थी और हँसते हुए बोली।
"सपना नाम है मेरा और हाँ, सरनेम तुम्हारा लगाना चाहती हूँ, जब से तुम्हें और तुम्हारी मासूमियत को देखा है।"
आखिरकार असमंजस में पढ़ते हुए मैंने पूछ ही लिया,"कहा और क्या देख लिया ऐसा आपने?"
"अब बैठोगे भी या ऐसे ही घूरते रहोगे" उसने हँस कर कहा।
मैं भी अब थोड़ा शर्मा कर, गर्दन नीचे कर के बैठ गया था।
उसने वेटर को दो काफी के लिए बोला और मेरी तरफ मुड़ते हुए बोली,"कुछ बोलोगे भी या ऐसे ही लड़कियों की तरह शर्माते रहोगे।"
"आपका नाम क्या है?" मेरे मुँह से निकला।
"क्या, फेसबुक पर नहीं देखा?" उसने आँखें फैलाते हुए पूछा।
मैं हड़बड़ाया और बात सम्भालते हुए बोला,"देखा है, पर सोचा आपसे ही पूछ लूँ।"
वो मेरी चालाकी समझ चुकी थी और हँसते हुए बोली।
"सपना नाम है मेरा और हाँ, सरनेम तुम्हारा लगाना चाहती हूँ, जब से तुम्हें और तुम्हारी मासूमियत को देखा है।"
आखिरकार असमंजस में पढ़ते हुए मैंने पूछ ही लिया,"कहा और क्या देख लिया ऐसा आपने?"
"तुम्हें याद है लगभग एक महीने पहले तुम अपने दोस्तों के साथ वाटर पार्क गए थे।" उसने कहा।
"हाँ, याद है। तो?" मैंने दुबारा प्रश्न फेंका।
"वहीं देखा था तुम्हें, कुछ बच्चे वहाँ भीख माँग रहे थे, उन्हें देखकर तुम्हारे दोस्त आगे बढ़ गए पर तुमने उन्हें एक दुकान पर ले जाकर नाश्ता करवाया और उसके कुछ देर बाद तुम एक वृद्ध महिला को उसका सामान पकड़ कर बस में बिठा रहे थे, और उसके अगले ही पल एक पिल्ले को बिस्किट खिला रहे थे।" उसने एक साँस में ये सब कह दिया।
"पर ऐसा तो मैं अक्सर करता हूँ और लोग भी करते हैं।" मैंने कहा।
मेरी बात सुनकर वो मुस्कुराने लगी। और मेरा गाल पकड़ कर खींचते हुए बोली,"नहीं बुद्धु, पहली बात तो ये कि लोग तुम्हारी तरह ये सब अक्सर बिल्कुल नहीं करते, और जिस मासूमियत से तुम ये सब कर रहे थे, वैसे तो बिल्कुल भी नहीं, इसीलिए तुम सबसे अच्छे हो।"
"अच्छा जी ठीक है, पर आप मुझसे भी अच्छी है, क्योंकि अच्छाई करने वाले से ज्यादा अच्छा, अच्छाई को देख पाने वाला होता है।" मैंने कहा।
"अच्छा अब शब्दों से खेल रहे हो।" उसने मुस्कुराते हुए कहा।
"क्या करूँ, आदत है मेरी तो।" ये कहते हुए मैं हँस पड़ा।
"अच्छा ये बताओ, आपने मुझे फेसबुक पर सर्च तो किया, पर मेरा नाम कैसे पता चला?"
"उसमें कोई बड़ी बात नहीं थी, तुम्हारा एक दोस्त तुम्हें नाम से पुकार रहा था और बाकी सरनेम से, तो।" उसने ऐसे मुस्कुराते हुए जवाब दिया जैसे कोई बहुत बड़ी मर्डर मिस्ट्री सुलझाई हो।
"हाँ, याद है। तो?" मैंने दुबारा प्रश्न फेंका।
"वहीं देखा था तुम्हें, कुछ बच्चे वहाँ भीख माँग रहे थे, उन्हें देखकर तुम्हारे दोस्त आगे बढ़ गए पर तुमने उन्हें एक दुकान पर ले जाकर नाश्ता करवाया और उसके कुछ देर बाद तुम एक वृद्ध महिला को उसका सामान पकड़ कर बस में बिठा रहे थे, और उसके अगले ही पल एक पिल्ले को बिस्किट खिला रहे थे।" उसने एक साँस में ये सब कह दिया।
"पर ऐसा तो मैं अक्सर करता हूँ और लोग भी करते हैं।" मैंने कहा।
मेरी बात सुनकर वो मुस्कुराने लगी। और मेरा गाल पकड़ कर खींचते हुए बोली,"नहीं बुद्धु, पहली बात तो ये कि लोग तुम्हारी तरह ये सब अक्सर बिल्कुल नहीं करते, और जिस मासूमियत से तुम ये सब कर रहे थे, वैसे तो बिल्कुल भी नहीं, इसीलिए तुम सबसे अच्छे हो।"
"अच्छा जी ठीक है, पर आप मुझसे भी अच्छी है, क्योंकि अच्छाई करने वाले से ज्यादा अच्छा, अच्छाई को देख पाने वाला होता है।" मैंने कहा।
"अच्छा अब शब्दों से खेल रहे हो।" उसने मुस्कुराते हुए कहा।
"क्या करूँ, आदत है मेरी तो।" ये कहते हुए मैं हँस पड़ा।
"अच्छा ये बताओ, आपने मुझे फेसबुक पर सर्च तो किया, पर मेरा नाम कैसे पता चला?"
"उसमें कोई बड़ी बात नहीं थी, तुम्हारा एक दोस्त तुम्हें नाम से पुकार रहा था और बाकी सरनेम से, तो।" उसने ऐसे मुस्कुराते हुए जवाब दिया जैसे कोई बहुत बड़ी मर्डर मिस्ट्री सुलझाई हो।
इन्हीं सब बातों में और फिर एक-दूसरे की आँखों में देखते हुए ये शाम गुजर चुकी थी और वो घर वापस जाने के लिए खड़ी हो गई।
"घर पहुँचते ही मैसेज करना" मैंने कहा।
"हाँ और तुम भी" मुस्कुराते हुए उसने कहा।
"घर पहुँचते ही मैसेज करना" मैंने कहा।
"हाँ और तुम भी" मुस्कुराते हुए उसने कहा।
अब उस मुलाकात के बाद पिछले डेढ़ महीनों से हमारी रोज बातें हो रही थी। मम्मी-पापा को वापस आने में अभी भी तीन सप्ताह बाकी थे, पर मुझे अब मेरे अकेलेपन का साथी मिल चुका था, और मेरे दिल की मानू तो जीवनसाथी भी।
"तो एक सप्ताह बाद तुम्हारा बर्थडे है, क्या प्लान हैं?" उसने पूछा।
मैंने बिना सोचे पूछा,"तुम्हें कैसे पता?"
"कम ओन यार, फेसबुक से, और कैसे।"
"अरे हाँ, हा हा," मुझे खुद पर हँसी आ गई।
"पता नहीं, मम्मी-पापा भी नहीं होंगे इस बार तो, अकेले पता नहीं क्या करूँगा", मैंने लिखा।
"अच्छा अकेले! मेरे साथ भी सेलिब्रेट कर सकते हो, मैंने मना नहीं किया है बुद्धु", स्माइल इमोजी के साथ उसका जवाब था।
मैंने बिना सोचे पूछा,"तुम्हें कैसे पता?"
"कम ओन यार, फेसबुक से, और कैसे।"
"अरे हाँ, हा हा," मुझे खुद पर हँसी आ गई।
"पता नहीं, मम्मी-पापा भी नहीं होंगे इस बार तो, अकेले पता नहीं क्या करूँगा", मैंने लिखा।
"अच्छा अकेले! मेरे साथ भी सेलिब्रेट कर सकते हो, मैंने मना नहीं किया है बुद्धु", स्माइल इमोजी के साथ उसका जवाब था।
दोपहर का समय था, मैं और वो एक-दूसरे के सामने बैठे थे, बीच में टेबल पर दिल के आकार का केक रखा था (जो वो लाई थी, मेरे लिए)। मेरे मोमबत्ती बुझाते ही, वो खुशी से चहकते हुए ताली बजाकर "हैप्पी बर्थडे-हैप्पी बर्थडे" बोले जा रही थी। इसी बीच मैंने केक काटकर उसे खिलाया और उसने मुझे खिलाते हुए मेरे चेहरे पर लगा दिया और अपने पर्स से एक लाल गुलाब निकालकर, मुझे देते हुए बोली "हैप्पी बर्थडे वन्स अगेन"।
मेरी धड़कनें तेज हो चुकी थी। शायद ये अब तक का सबसे अनमोल तोहफा था, तो ऊपर वाले ने मुझे दिलवाया था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी इतनी छोटी सी अच्छाई का इतना बड़ा तोहफा मिलने वाला है मुझे।
बातें करते-करते शाम हो गई और अब वो जाना चाहती थी। मैंने उसे उसके घर छोड़ना चाहा पर उसने टैक्सी के लिए बोला। टैक्सी में बैठने से पहले उसके होंठ मेरे गालों को छू चुके थे और अब जाते हुए वो टैक्सी से हाथ हिलाकर रही थी।
बातें करते-करते शाम हो गई और अब वो जाना चाहती थी। मैंने उसे उसके घर छोड़ना चाहा पर उसने टैक्सी के लिए बोला। टैक्सी में बैठने से पहले उसके होंठ मेरे गालों को छू चुके थे और अब जाते हुए वो टैक्सी से हाथ हिलाकर रही थी।
घर आकर देखा तो वो अपने साथ लाया बैग यहीं भूलकर चली गई थी। बैग उठाया तो उसमें से उसका आई-कार्ड गिरा, जिस पर लिखा था-
"सरिता अनाथालय हॉस्टल"
"गेट बंद होने का समय शाम 07:30 बजे"
शायद मैं अब उसकी आँखों और दिए हुए गुलाब को पढ़ पा रहा था।
दरवाजे की घंटी से मैं वापस वर्तमान में लौटा। दो दिन बाद मम्मी-पापा के आने पर मुझे उनसे बहुत कुछ शेअर करना था और अब बहुत कुछ करना था उसे अपनी जिंदगी में लाने के लिए।
"सरिता अनाथालय हॉस्टल"
"गेट बंद होने का समय शाम 07:30 बजे"
शायद मैं अब उसकी आँखों और दिए हुए गुलाब को पढ़ पा रहा था।
दरवाजे की घंटी से मैं वापस वर्तमान में लौटा। दो दिन बाद मम्मी-पापा के आने पर मुझे उनसे बहुत कुछ शेअर करना था और अब बहुत कुछ करना था उसे अपनी जिंदगी में लाने के लिए।
वे नौ दिन: लेखक प्रतीक कुमार
Reviewed by कहानीकार
on
September 05, 2017
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